अब तीर्थ यात्रियों और अन्य श्रद्धालुओं को गुजरात के समुद्र तट पर स्थित बेट द्वारका के प्रसिद्ध द्वारका धीष मंदिर दर्शन करना बेहद आसान हो गया हैं । प्रधानमंत्री मोदी द्वारा आज देश वासियों को समर्पित किए गए नवनिर्मित सुदर्शन सेतु के बनने के बाद अब तीर्थ यात्रा के लिए देशभर से आने वाले श्रद्धालुओं को बेट द्वारका मंदिर तक जाने के लिए 2.5 किलोमीटर का रास्ता समुद्र पर स्टीमर अथवा नाव से पार नहीं करना पड़ेगा अब वह आज से प्रारंभ हुए शानदार सुदर्शन पुल होकर मंदिर तक पहुंच सकेंगे । पूर्व में जमीनी रास्ता नहीं होने से तीर्थ यात्रियों को भारी परेशानी उठानी पड़ती थी।
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात दौरे पर हैं. उन्होंने आज 25 फरवरी को कई विकास परियोजनाओं का उद्घाटन किया. इसी में से एक अहम प्रोजेक्ट सुदर्शन सेतु है. 2.5 किलोमीटर लंबा यह पुल केबल पर टिका भारत का सबसे लंबा पुल है. यह ओखा मेनलैंड और बेट द्वारका द्वीप को जोड़ेगा. करीब 980 करोड़ रुपये की लागत से बना सुदर्शन सेतु पुल ओखा-बेट द्वारका सिग्नेचर ब्रिज के रूप में भी जाना जाता है. यह पुल द्वारकाधीश मंदिर में आने वालों के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित होगा.
पीएम नरेंद्र मोदी ने शनिवार 24 फरवरी को अपने दो दिवसीय गुजरात यात्रा से पहले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) पर लिखा, था कि “कल गुजरात के विकास पथ के लिए एक खास दिन है. जिन कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया जाएगा, उनमें ओखा मेनलैंड और बेट द्वारका को जोड़ने वाला सुदर्शन सेतु भी शामिल है. यह एक आश्चर्यजनक प्रोजेक्ट है जो कनेक्टिविटी को बढ़ाएगा.”
सुदर्शन सेतु से जुड़ी खास बातें
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- ओखा मेनलैंड को बेट द्वारका द्वीप से जोड़ने वाले सुदर्शन सेतु से इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी को नई दिशा मिलेगी.
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- सुदर्शन सेतु केबल पर टिका भारत का सबसे लंबा पुल है. इसमें फुटपाथ के ऊपरी हिस्सों पर सौर पैनल लगाए गए हैं, जो एक मेगावाट बिजली पैदा करते हैं.
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- चार लेन वाले पुल के दोनों तरफ 50 मीटर चौड़े फुटपाथ हैं.
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- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2017 में पुल की नींव रखी थी.
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- सुदर्शन सेतु को बनाने में 978 करोड़ रुपये की लागत आई है.
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- सुदर्शन सेतु पर भगवद गीता के श्लोकों और दोनों तरफ भगवान कृष्ण की छवियों से सजा हुआ फुटपाथ भी है.
- ओखा-बेट द्वारका सिग्नेचर ब्रिज के निर्माण से पहले, तीर्थयात्रियों को बेयत, द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर तक पहुंचने के लिए बोट ट्रांसपोर्ट पर निर्भर रहना पड़ता था.