जम्मू कश्मीर सहित पूरे देश में जस्न का माहौल
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पाँच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से फ़ैसला देते हुए जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने का फ़ैसला बरकरार रखा है
फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, ”राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य की ओर से लिए गए केंद्र के फ़ैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती है. अनुच्छेद 370 युद्ध जैसी स्थिति में एक अंतरिम प्रावधान था. इसके टेक्स्ट को देखें तो भी पता चलता है कि यह अस्थायी प्रावधान था.”
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए आदेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने के फ़ैसले को वैध मानता है.
अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के ख़िलाफ़ याचिकाकर्ताओं ने एक दलील ये भी दी थी कि राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्र सरकार राज्य की तरफ़ से इतना अहम फ़ैसला नहीं ले सकती है.
मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के दौरान ही अनुच्छेद 370 हटाया था.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत में विलय के बाद जम्मू-कश्मीर के पास आंतरिक संप्रभुता का अधिकार नहीं है.
केंद्र की बीजेपी सरकार ने साल 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर के जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँट दिया था.
इस फ़ैसले की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट की जिस संविधान पीठ ने इस मामले में फ़ैसला सुनाया है उसमें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, बीआर गवई और सूर्यकांत शामिल हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या-क्या कहा
मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 370 हटाने का अधिकार है. सीजेआई ने कहा कि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफ़ारिशें राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं हैं और भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हो सकते हैं.
न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 370(3) के तहत राष्ट्रपति को 370 को निष्प्रभावी करने का अधिकार है.
सर्वोच्च न्यायालय ने ये भी कहा है कि राज्य में युद्ध जैसे हालात की वजह से अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था थी और संविधान के अनुच्छेद एक और 370 से ये स्पष्ट है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है.
इस संविधान पीठ ने 16 दिनों तक चली जिरह के बाद इसी साल पाँच सितंबर को अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था.
इस मामले में कुल 23 याचिकाएं दायर की गई थीं. याचिकाकर्ताओं में नागरिक समाज संगठन, वकील, राजनेता, पत्रकार और कार्यकर्ता शामिल हैं.
याचिकाकर्ताओं ने अदालत से अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटने को रद्द करने की मांग की थी.
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह लोगों की इच्छा के ख़िलाफ़ जाने के लिए किया गया एक राजनीतिक कृत्य था.
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस संजय किशन कौल ने जम्मू-कश्मीर में अभी तक हुई हिंसा के मामलों को देखने के लिए एक समिति का गठन करने का भी सुझाव दिया.
सीजेआई की कही ये बड़ी बातें
- जम्मू कश्मीर के पास भारत में विलय के बाद आंतरिक संप्रभुता का अधिकार नहीं है
- राष्ट्रपति शासन की घोषणा को चुनौती देना वैध नहीं है
- अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था
- संविधान सभा के भंग होने के बाद भी राष्ट्रपति के आदेशों पर कोई प्रतिबंध नहीं
- राष्ट्रपति का शक्ति प्रयोग दुर्भावनापूर्ण नहीं था और इसके लिए राज्य से सहमति लेना ज़रूरी नहीं था
- लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाना वैध
- जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल कर के जल्द से जल्द चुनाव हों
अनुच्छेद 370 क्या था?
अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक प्रावधान था. यह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था. यह भारतीय संविधान की उपयोगिता को राज्य में सीमित कर देता था.
संविधान के अनुच्छेद-1 के अलावा, जो कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ है, कोई अन्य अनुच्छेद जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होता था. जम्मू कश्मीर का अपना एक अलग संविधान था.
भारत के राष्ट्रपति के पास ज़रूरत पड़ने पर किसी भी बदलाव के साथ संविधान के किसी भी हिस्से को राज्य में लागू करने की ताक़त थी. हालाँकि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अनिवार्य थी.
इसमें यह भी कहा गया था कि भारतीय संसद के पास केवल विदेश मामलों, रक्षा और संचार के संबंध में राज्य में क़ानून बनाने की शक्तियां हैं.
इस अनुच्छेद में इस बात की भी सीमा थी कि इसमें संशोधन कैसे किया जा सकता है.
इसमें कहा गया था कि इस प्रावधान में राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सहमति से ही संशोधन कर सकते हैं.
जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा का गठन 1951 में किया गया था. इसमें 75 सदस्य थे.
इसने जम्मू और कश्मीर के संविधान का मसौदा तैयार किया था. ठीक उसी तरह जैसे भारत की संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया था.
राज्य के संविधान को अपनाने के बाद नवंबर 1956 में जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का अस्तित्व ख़त्म हो गया था.
बीजेपी काफ़ी लंबे समय से इस अनुच्छेद को कश्मीर के भारत के साथ एकीकरण की दिशा में कांटा मान रही थी.
चार साल पहले हुआ था 370 निरस्त
पाँच अगस्त 2019 को राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया. इससे संविधान में संशोधन हुआ. इसमें कहा गया कि राज्य की संविधान सभा के संदर्भ का अर्थ राज्य की विधानसभा होगा.
इसमें यह भी कहा गया था कि राज्य की सरकार राज्य के राज्यपाल के समकक्ष होगी.
यहां यह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब संशोधन पारित हुआ, तो जम्मू कश्मीर में दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था.
जून 2018 में, भाजपा ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. इसके बाद राज्य 6 महीने तक राज्यपाल शासन और फिर राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा.
सामान्य परिस्थितियों में इस संशोधन के लिए राष्ट्रपति को राज्य विधानमंडल की सहमति की ज़रूरत होती, लेकिन राष्ट्रपति शासन के कारण विधानमंडल की सहमति संभव नहीं थी.
इस आदेश ने राष्ट्रपति और केंद्र सरकार को अनुच्छेद 370 में जिस भी तरीक़े से सही लगे संशोधन करने की ताक़त दे दी.
इसके अगले दिन राष्ट्रपति ने एक और आदेश जारी किया. इसमें कहा गया कि भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होंगे. इससे जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा ख़त्म हो गया.
9 अगस्त को, संसद ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों: जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में बाँटने वाला एक क़ानून पारित किया. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं होगी.
जम्मू-कश्मीर में पाँच अगस्त से लॉकडाउन लगा दिया गया था. वहां कर्फ्यू लगा दिया गया था. टेलीफोन नेटवर्क और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं.
राजनीतिक दलों के नेताओं समेत हज़ारों लोगों को या तो हिरासत में ले लिया गया या गिरफ्तार किया गया या नज़रबंद कर दिया गया.
जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल के कई लाख जवानों को तैनात किया गया.
2जी इंटरनेट को कुछ महीने बाद जनवरी 2020 में बहाल किया गया जबकि 4जी इंटरनेट को फ़रवरी 2021 में बहाल किया गया.
अनुच्छेदों को हटाए जाने के तुरंत बाद इसे चुनौती देते हुए कई याचिकाएँ दायर की गईं.
अगस्त 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को पाँच जजों की बेंच के पास भेज दिया था. अदालत ने इस साल अगस्त में इस मामले की अंतिम दलीलें सुननी शुरू कीं.