भारत में हजारों वर्षों से सुरंग निर्माण की परंपरा रही है देश में आज भी कई किले ऐसे हैं जिनका निर्माण पहाणों को खोदकर किया गया और इनमें मीलों लंबी सुरंगे आज भी हमारी उत्कृष्ठ खुदाई कौशल की गवाही देती हैं । ग्वालियर के किले पर आज भी मीलों दूर नरवर के जंगलों तक फैली सुरंग के रास्ते देखे जा सकते हैं अजंता एलोरा की गुफाएं भी इसका प्रमाण हैं हमारे ऋषि मुनि तो ऐसी कंदराओं गुफाओं में रहकर वर्षों तपस्या और साधना किया करते थे। अफसोस है कि हमने अपनी पुरातन परंपरागत तकनीकों और इसको अंजाम देने वाले शिल्पकारों को बढ़ावा देने के बजाए बड़ी बड़ी मशीनों पर विश्वास किया । उत्तराखंड की दुर्घटना ने हमें एकबार पुनः यह संकेत दिए हैं कि हमें हमारी पुरातन तकनीकों को बढ़ावा देने की दिशा में विचार करना चाहिए।
यूं ही किसी ने नहीं कहा है “मेरा भारत महान”
जहां अमेरिका जैसे विकसित देश की भारी भरकम मशीनों ने दम तोड़ दिया वहां हमारी परंपरागत चूहा तकनीक ने चमत्कार कर दिया
इस तकनीक का उपयोग कर 41 मजदूरों की जान बचाने वाले जांबाजों ने साहस ,दिमाग और और परंपरागत देशी ओजारों का ऐसा शानदार उपयोग किया कि पूरी दुनिया चमत्कृत रह गई है।
चुनौतीपूर्ण रेस्क्यू ऑपरेशन के आखिरी फेज में 25 टन की ऑगर मशीन के फेल हो जाने के बाद फंसे हुए मजदूरों को निकालने के लिए सोमवार से रैट-होल माइनर्स की मदद ली गई. रैट माइनर्स 800MM के पाइप में घुसकर ड्रिलिंग की. ये बारी-बारी से पाइप के अंदर जाते, फिर हाथ के सहारे छोटे फावड़े से खुदाई करते थे. ट्राली से एक बार में तकरीबन 2.5 क्विंटल मलबा लेकर बाहर आते थे.
प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उत्तराखंड की पूरी सरकार ही नहीं रेस्क्यू क्षेत्र के पुरी दुनिया के बड़े बड़े धुरंधर दिल थामकर भारत की इस चूहा तकनीक को अंजाम देने वाले मजदूरों के काम को देख रहे थे।
और अंततः उत्तराखंड की उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्क्यारा-डंडालगांव टनल में 17 दिन से फंसे 41 मजदूरों को भारत की इस देशी तकनीक से सुरक्षित रेस्क्यू कर लिया गया. मजदूरों के लिए रैट होल माइनर्स हीरो के तौर पर उभरे.
उन्होंने सोमवार शाम से मैनुअल ड्रिलिंग शुरू की और टनल के अंदर जाने के लिए रास्ता बनाया. मजदूरों के बाहर निकलने पर रैट होल माइनर्स के चेहरे पर खुशी साफ देखी जा सकती थी. उनके चेहरे की हंसी उस टनल के अंदर 60 मीटर की ड्रिलिंग की सारी थकान को छिपा रही थी.
पूरी दुनिया के बड़े बड़े धुरंधरों को भारत की इस पुरातन विद्या पर भले ही अविश्वास हो लेकिन .भारत की इस परंपरागत तकनीक को जीवित रखने वाले रैट होल माइनर्स के टीम लीडर को ऑपरेशन शुरू करने से पहले ही इसकी सफलता पर पूर्ण विश्वास था उन्होंने कहा था, “हमें पूरा भरोसा था कि टनल में फंसे हुए मजदूरों को बाहर निकाल लाएंगे हमें उन्हें बाहर निकालने के लिए 24 घंटे काम करना होगा”
रैट-होल माइनिंग क्या है?
रैट-होल माइनिंग के मतलब से ही साफ है कि छेद में घुसकर चूहे की तरह खुदाई करना. इसमें पतले से छेद से पहाड़ के किनारे से खुदाई शुरू की जाती है. पोल बनाकर धीरे-धीरे छोटी हैंड ड्रिलिंग मशीन से ड्रिल किया जाता है. हाथ से ही मलबे को बाहर निकाला जाता है.
इसका इस्तेमाल आमतौर पर कोयले की माइनिंग में खूब होता रहा है. झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर पूर्व में रैट होल माइनिंग जमकर होती है. लेकिन रैट होल माइनिंग काफी खतरनाक काम है, इसलिए इसे NGT ने 2014 में बैन भी किया था.
हालांकि, अधिकारी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के सदस्य रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन का कहना है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने 2014 में कोयला खनन के लिए इस तकनीक पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन यह एक ऐसी स्किल है, जिसका इस्तेमाल कंस्ट्रक्शन साइट पर किया जाता है. ये प्रक्रिया हमेशा आसान नहीं होती. लेकिन मुश्किल स्थितियों में इसका इस्तेमाल किया जाता है.
उल्लेखनीय है कि भारत में हजारों वर्षों से सुरंग निर्माण की परंपरा रही है देश में आज भी कई किले ऐसे हैं जिनका निर्माण पहाणों को खोदकर किया गया और इनमें मीलों लंबी सुरंगे आज भी हमारी उत्कृष्ठ खुदाई कौशल की गवाही देती हैं । ग्वालियर के किले पर आज भी मीलों दूर नरवर के जंगलों तक फैली सुरंग के रास्ते देखे जा सकते हैं अजंता एलोरा की गुफाएं भी इसका प्रमाण हैं हमारे ऋषि मुनि तो ऐसी कंदराओं गुफाओं में रहकर वर्षों तपस्या और साधना किया करते थे। अफसोस है कि हमने अपनी पुरातन परंपरागत तकनीकों और इसको अंजाम देने वाले शिल्पकारों को बढ़ावा देने के बजाए बड़ी बड़ी मशीनों पर विश्वास किया । उत्तराखंड की दुर्घटना ने हमें एकबार पुनः यह संकेत दिए हैं कि हमें हमारी पुरातन तकनीकों को बढ़ावा देने की दिशा में विचार करना चाहिए।