सम्पादकीय
कहीं का ईंट कही का रोड़ा भानमति ने कुनबा जोड़ा” आजकल मध्यप्रदेश में कांग्रेस का कुछ यही हाल है। अपना कुनबा जुटाने के लिए कमलनाथ ने भानमति का रूप धारण कर लिया है। ऐसा करना अब उनकी और कांग्रेस की मजबूरी हो गई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा का दामन क्या थामा कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या यह हो गई की कौन अपना है और कौन पराया इसकी पहचान मुश्किल हो गई है। सबसे ज्यादा बुरा हाल तो ग्वालियर चम्बलअंचल का है कहा जा रहा है की सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद सिंधिया समर्थकों की बड़ी फ़ौज पाला बदलने के इंतजार में है। कमलनाथ बेहाल हैं आखिर किसे अपना समझें और किसे पराया ? यही वजह है की कल तक जो कांग्रेस में हाशिए पर थे या यूं कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा की पिटे पिटाये मोहरों पर दांव लगाने पर कमलनाथ मजबूर हैं। एक पद पर चार चार ऐसे नेता तैनात करने की धूर्तनीति का प्रदर्शन किया जा रहा है। एक तरफ पद के सहारे पलायन रोकने की चतुराई दूसरी तरफ एक पद पर बैठे चार नेताओं से अलग अलग बातचीत करके सही जानकारी प्राप्त करने की कोशिश। इस छिछली और बेहद कमजोर रणनीति का कमलनाथ को भले ही कुछ लाभ अवश्य मिल जाए लेकिन ग्वालियर अंचल में पहले से ही मरी मराई पड़ी कांग्रेस को इससे कोई लाभ मिलेगा ऐसा दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। ग्वालियर में चार चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने अपने लिए और बड़ी मुसीबत मोल ले ली है। ऐसा इसलिए की जब रेवड़ियां बटती हैं तो हर कोई उसे लेना चाहता है जिन्हें मिली वो सन्तुष्ट और जिन्हें नहीं मिली वो नाराज। पिछले चौबीस घण्टों अर्थात कमलनाथ ने जबसे चार कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किए तभी से भीतर ही भीतर कांग्रेस जल उठी है एक नहीं तमाम नेता खुद को छला हुआ महसूस कर हैं। देखना दिलचस्प होगा की इस आग को कैसे शांत किया जाता है ? इसके अलावा कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी समस्या चार चार अध्यक्ष के बीच समन्वय बिठाना वह भी उस स्थिति में जब वे अलग अलग गुटों से आते हों बेहद कठिन होगा । कठिन दौर में यह स्थिति सिर फुटव्वल के हालात भी पैदा करेगी जैसी की कांग्रेस में परम्परा रही है वहां सँगठननिष्ठा या अनुशासन जैसी कोई चीज नहीं होती वहां तो केवल व्यक्तिनिष्ठा को ही सर्वोपरि माना जाता है जब व्यक्तिओं में ही मतभिन्नता होगी तो उनके अनुयायियों में टकराव अवश्यम्भावी है। लिखने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए की ग्वालियर चम्बल अंचल में सिंधिया के जाने के बाद नेताविहीन हो चुकी कांग्रेस अब एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसती जा रही है जिससे बाहर निकलने का रास्ता किसी को नहीं मालूम ।