प्रवीण दुबे
ग्वालियर के चुनावी इतिहास में 1952 से लेकर 2019 तक 8 बार जीत का वरण करने वाली कांग्रेस खबर लिखे जाने तक अपने प्रत्याशी के नाम की घोषणा नहीं कर सकी है। यही कारण है कि भाजपा उम्मीदवार चुनावी दंगल में अकेले ही ताल ठोंकते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा नहीं कि कांग्रेस के पास चुनाव में उतरने के लिए कोई दमदार कैंडीडेट नहीं है लेकिन इसे कांग्रेस की विडंबना ही कही जाएगी की अकेले ग्वालियर ही नहीं गुना और मुरैना जैसी सीटों पर पार्टी हाईकमान निर्णय नहीं ले पा रहा है।
पार्टी के भीतर से जिस प्रकार की खबरें मिल रहीं हैं उनके मुताबिक ग्वालियर से सबसे दमदार चेहरा माने जा रहे विधायक सतीश सिकरवार ने चुनाव में उतरने से इंकार कर दिया है।
उधर इस सीट के लिए सबसे मुफीद माने जाने वाले अशोक सिंह को पार्टी लोकसभा में उतारने के पहले ही राज्यसभा में पहुंचाने की गलती कर चुकी है। एक अन्य प्रत्याशी जिनकी चर्चा है वह पूर्व सांसद रामसेवक बाबू जी हैं गुर्जर वोटों की बड़ी संख्या के कारण पार्टी उनपर दांव लगा सकती है लेकिन उनपर रुपयों के लेनदेन के एक बड़े आरोप तथा पार्टी की अंदरूनी राजनीति कांग्रेस हाईकमान के लिए मुसीबत बनी हुई है,विधानसभा चुनाव हारे हुए पूर्व विधायक प्रवीण पाठक की भी चर्चा है लेकिन यहां भी अंदरूनी कलह निर्णय नहीं होने दे रही है।
एक चर्चा यह भी है कि पार्टी नेतृत्व खासकर गोविंद सिंह जैसे नेता ग्वालियर अंचल के भाजपा से नाराज नेताओं पर डोरे डालने में लगे हैं इसमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई के भांजे अनूप मिश्रा का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। श्री मिश्रा ने एक इंटरव्यू के दौरान यह कहा था कि कांग्रेस यदि बात करती है तो वे विचार करेंगे।
उधर भाजपा प्रत्याशी भी विधानसभा चुनाव में हारे थे साथ ही उनकी ही बिरादरी के नारायण सिंह कुशवाह से जो कि प्रदेश सरकार में मंत्री हैं से पटरी नहीं बैठने की बात सामने आ रही है हालांकि पार्टी नेतृत्व डेमेज कंट्रोल करने में जुटा है। इतना होने के बावजूद सामने कोई प्रतिद्वंदी नहीं होने का लाभ भाजपा को मिल रहा है।
ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र अपनी अनिश्चित राजनीतिक हवाओं के लिए भी मशहूर है. यहां के लोग किसी एक पार्टी को लगातार समर्थन नहीं देते, बल्कि चुनाव दर चुनाव अपनी पसंद बदलते रहते हैं. ग्वालियर लोकसभा सीट के चुनावों में उतार-चढ़ाव का सिलसिला 1952 से जारी है. 1952 के पहले चुनाव में हिंदू महासभा से वीजी देशपांडे जीते लेकिन उन्होंने गुना सीट पर भी जीत दर्ज की थी इसलिए उसी साल ग्वालियर के उपचुनाव में हिंदू महासभा के नारायण खरे जीते.
इसके बाद फिर सिंधिया परिवार का दबदबा इस सीट पर शुरू हुआ. 1957 में सूरज परिवार जीते लेकिन अगले चुनाव 1962 में विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस से जीत गईं.
हालांकि 1967 में यह सीट कांग्रेस के हाथ से फिसलकर जनसंघ के खाते में चली गई. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने यहां जीत हासिल की लेकिन 1984 में फिर से जनता ने कांग्रेस के माधवराव सिंधिया को अपना समर्थन दिया. 2001 में माधवराव सिंधिया के निधन के बाद साल 2007 और 2009 में यशोधराराजे सिंधिया ने यहां जीत हासिल की थी. 2014 में नरेंद्र सिंह तोमर और 2019 में विवेक शेजवलकर सांसद चुने गए थे।