प्रयागराज के कसारी-मासरी इलाके में मौजूद कब्रिस्तान में अतीक के बेटे असद की कब्र खोदी गई है. अतीक के माता-पिता की कब्र के पास ही बेटे असद को भी दफनाया जाएगा. वहीं, असद के साथ मारे गए मोहम्मद गुलाम को भी इसी कब्रिस्तान से दफनाया जाएगा.
जानकारी सामने आई है कि दोनों के शव परिजनों को नहीं सौंपे जाएंगे. आज पुलिस की निगरानी में ही शवों को झांसी से प्रयागराज लाया जाएगा और फिर सुपुर्द-ए-खाक किया जाएगा. पुलिस का कहना है कानून व्यवस्था न बिगड़े इसलिए यह व्यवस्था की गई है. सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशानिर्देश
बता दें कि असद और गुलाम का गुरुवार को झांसी के पारीछा डैम इलाके में एनकाउंटर कर दिया गया था, जिसके बाद उनका गुरुवार देर रात पोस्टमार्टम किया गया. आज उनके शवों को प्रयागराज लाया जा रहा है. फिर उनको दफनाया जाएगा.
एनकाउंटर का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में न हो क्या कहते हैं सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशानिर्देश
क़ानून का पालन करने वाली एजेंसियां एनकाउंटर का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में न कर सकें, इसलिए इस तरह की एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग्स को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) और सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशानिर्देश दिए हैं. इंडियन एक्सप्रेस ने इस दिशानिर्देश से जुड़ी कुछ बातें अपनी रिपोर्ट में छापी हैं.
अख़बार लिखता है कि 2014 में पीयूसीएल (पीपल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़) बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा और रोहिंगटन फ़ली नरीमन की बेंच ने पुलिस एनकाउंटर से जुड़ा 16 सूत्री दिशार्निदेश दिया था.
कोर्ट का कहना था कि ऐसे मामले जिनमें पुलिस कार्रवाई में व्यक्ति की मौत हुई हो या फिर उसे गंभीर चोट आई हो, उनमें एफ़आई दर्ज करना बाध्यकारी है, साथ ही मामले की मजिस्ट्रेट से जांच कराना, लिखित दस्तावेज़ रखना और सीआईडी जैसी एजेंसियों से स्वतंत्र जांच की बात भी शामिल है.
कोर्ट ने कहा था, “पुलिस कार्रवाई के दौरान हुई इस तरह की सभी मौतों की मजिस्ट्रेट जांच ज़रूरी है. जांच में मृतक के परिवार को शामिल किया जाना चाहिए. पुलिस को आईपीसी की उपयुक्त धारा के तहत एफ़आईआर दर्ज करनी चाहिए और इस बात की भी जांच होनी चाहिए कि ताक़त का इस्तेमाल करना जायज़ था या नहीं. इसकी रिपोर्ट ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के पास भेजी जानी चाहिए.”
दिशानिर्देशों में कहा गया है कि “पुलिस को मामले से जुड़ी जो ख़ुफ़िया जानकारी मिलती है उसे या तो केस डायरी में या फिर किसी और तरीके से लिखा जाना ज़रूरी है. अगर जानकारी के आधार पर की गई कार्रवाई में किसी व्यक्ति की मौत हुई तो एफ़आईआर दर्ज कर तुरंत कोर्ट में पेश किया जाना चाहिए.”
कोर्ट का कहना था कि इस मामले में अगर जांच की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर गंभीर शक़ न हों तो एनएचआरसी को इसकी रिपोर्ट देना ज़रूरी नहीं है, हालांकि एनएचआरसी और राज्य मानवाधिकार कमीशन को इसकी जानकारी ज़रूर दी जानी चाहिए.
1997 में पूर्व चीफ़ जस्टिस एमएन वेंकटचेलैया ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक ख़त लिखकर कहा था कि एनएचआरसी को फ़र्ज़ी मुठभेड़ों के मामलों में बढ़ोतरी की शिकायतें मिल रही हैं,
खत में उन्होंने कहा, “अगर कोई पुलिसकर्मी किसी व्यक्ति की जान लेता है तो ये हत्या का मामला है, हालांकि क़ानूनी तौर पर ये साबित होना चाहिए कि ये हत्या गुनाह था या नहीं.”
इसके बाद एनएचआरसी ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से कहा कि वो पुलिस एनकाउंटर में होने वाली मौतों के मामलों में दिशानिर्देशों का पालन करें और मामले से जुड़ी सभी जानकारी एक रजिस्टर में लिखें. इस तरह के मामलों में जांच स्वतंत्र एजेंसियों से कराई जानी चाहिए.
दिशानिर्देश में ये भी कहा गया है कि अगर पुलिसकर्मी मामले में दोषी पाए गए तो उनके ख़िलाफ़ मामला चलाया जाना चाहिए और मृतक के परिवार के लिए मुआवज़े की व्यवस्था होनी चाहिए.
24 फ़रवरी को प्रयागराज में हुए उमेश पाल हत्याकांड के सिलसिसे में पुलिस को असद की तलाश थी. असद और ग़ुलाम पर पुलिस ने पांच लाख रुपए का इनाम रखा था. उमेश पाल की हत्या उस वक्त कर दी गई थी जब वो कचहरी से लौट रहे थे. वो 2005 में बसपा विधायक राजू पाल की हत्या के मुख्य गवाह थे.