भोपाल / मध्यप्रदेश वन विभाग ने दुर्लभ संकटापन्न 32 प्रजातियों के एक करोड़ पौधे तैयार किये हैं। जीवनोपयोगी और औषधि के रूप में प्रयोग किये जाने वाले ये पौधे ग्रामीणों और वनवासियों की आय का स्त्रोत भी हैं। सभी प्रजातियों के पौधे आम लोग भी वन विभाग की नर्सरियों से 12 से 15 रुपये की दर पर खरीद सकते हैं।
संकटापन्न पौधे बीजा, अचार, हल्दू, मैदा, सलई, कुल्लू, गुग्गल, दहिमन, शीशम, लोध्र, पाडर, सोनपाठा, तिन्सा, धनकट, कुसुम भारंगी मालकांगनी, कलिहारी, माहुल, गुणमार, निर्गुड़हकंद, केवकंद, गुलबकावली, मंजिष्ठ, ब्राम्हनी आदि जाति के पौधों की उपयोगिता आज भी बहुत है। वन विभाग ने इन प्रजातियों को बचाने के लिये दीर्घकालीन योजना बनाकर काम शुरू कर दिया है। खतरे (Endangered) में दहिमन, सोनपाठा, लोध्र और गुग्गल, संवेदनशील (Vulnerable) में शीशम, बीजा, पाडर (अर्धकपारी), कुल्लू और कैथा, खतरे के नजदीक (Near Thereatened) में सलई, अचार (चिरोंजी), धनकट (धामिन), अंजन, तिन्सा, हल्दू और कुसुम शामिल हैं।
प्रधान मुख्य वन संरक्षक श्री पी.सी. दुबे ने बताया कि वन विभाग की 171 नर्सरियों में 165 अन्य प्रजाति के उत्कृष्ट पौधे भी उपलब्ध हैं। पौधों की उपलब्धता की रोपणीवार जानकारी विभाग के पोर्टल, क्षेत्रीय कार्यालयों और एम.पी. ऑनलाइन पर उपलब्ध है। श्री दुबे ने कहा कि इन दुर्लभ संकटापन्न प्रजातियों की सामान्य के साथ विशिष्ट उपयोगिताएँ भी हैं। कई वृज प्रजातियों का स्थानीय वनवासियों के रोजमर्रा के जीवन में आर्थिक और सांस्कृतिक महत्व है।
बीजा प्रजाति के वृक्ष का उपयोग चारा, लकड़ी, औषधियों, ढोलक और तबला वाद्य यंत्र में किया जाता है। औषधीय गुणों से युक्त अचार का फल पशु-पक्षियों में लोकप्रिय होने के साथ इसकी छाल और गोंद से औषधि बनती है। हल्दू की लकड़ी पीली होती है, जिसका उपयोग पित्त और पीलिया रोग में किया जाता है। मैदा की छाल की दवा बनती है। सलई, कुल्लू, गुग्गल का गोंद भी अनेक रोगों की औषधि बनाने में प्रयोग होता है। दहिमन वृक्ष से रक्तचाप, मुँह में छाले, विष-नाशक औषधि बनती है। शीशम चारा, इमरती लकड़ी और दवा के उपयोग में आता है। लोध्र, पाडर, सोनपाठा से भी दवाएँ बनती हैं। तिन्सा, धनकट चारा एवं इमारती लकड़ी के लिये जाने जाते हैं। कुसुम का पेड़ चारा, इमारती लकड़ी, रेशम कीट-पालन, तेल और दवा बनाने में उपयोगी है।
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में लगभग 216 वृक्ष प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से कई प्रजातियाँ ऐसी हैं, जिनकी संख्या, उपलब्धता, प्रसार, प्रचुरता और पुनरुत्पादन में तो कमी आई है, पर इनकी उपयोगिता सतत बनी हुई है