संपादकीय:प्रवीण दुबे
विधानसभा लोकसभा दोनों ही चुनावों में मिली जोरदार सफलता के बाद मध्यप्रदेश में सत्ताधारी दल भाजपा में संगठन चुनाव की चर्चा सरगर्म है,राष्ट्रीय अध्यक्ष के मनोनयन से पूर्व जिला स्तर तक संगठन चुनाव की प्रक्रिया पूर्ण करने की परंपरा भाजपा में रही है। आश्चर्य का विषय यह है कि कार्यकर्ता आधारित सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने के बावजूद भाजपा में कार्यकर्ताओं को सत्ता से दूर रखने की जैसे परंपरा सी चल गई है,पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के बाद अब डॉ मोहन यादव भी उसी ढर्रे पर चलते दिखाई दे रहे हैं।
जहां तक संगठन चुनाव की बात है तो किसी भी राजनीतिक दल के संवैधानिक पदों के लिए सक्रियता से निर्वाचन पूर्ण करना एक स्वस्थ्य परंपरा है और सभी को उसका निर्वहन करना ही चाहिए लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही जरूरी है कि कार्यकर्ताओं की सत्ता में सहभागिता को लेकर भी गम्भीरता दिखाई जाए और सक्रियता के साथ तेजी से उसपर काम किया जाए।
अफसोस की बात है कि भाजपा ने कार्यकर्ताओं की सत्ता में सहभागिता को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है और चुनाव निपटने तथा सत्ता में जोरदार वापसी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले कार्यकर्ताओं को आज भी सत्ता में सहभागिता का इंतजार है।
पार्टी अपने संगठनात्मक स्वरूप को मजबूत करने के प्रति तो बेहद सजग दिखती है लेकिन मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में लंबे समय से खाली पड़े निगम मंडल आयोग प्राधिकरण जैसे शासी निकायों में नियुक्तियों को लेकर पूरी तरह उदासीन नजर आती है ।
समझ से परे है कि सैकड़ों की संख्या में शासी निकायों के तमाम पदों पर सत्ता और संगठन से जुड़ा शीर्ष नेतृत्व कार्यकर्ताओं की नियुक्तियां क्यों नहीं करना चाहता है ?
इस बारे में पार्टी का कोई बड़ा नेता अपना मुंह खोलने को तैयार नहीं है ।
उधर इस बारे में तमाम राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि एक कार्यकर्ता आधारित राजनीतिक दल में लंबे समय तक कार्यकर्ताओं की अनदेखी पार्टी के लिए परेशानी का बड़ा कारण बन सकती है।
पूर्व में उत्तरप्रदेश सहित कई अन्य राज्यों में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने भी यही गलती की थी,एक समय उत्तरप्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं का मजबूत नेटवर्क मौजूद था लेकिन व्यक्तिवादी सोच के चलते कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गई और अब हालत यह है कि वहां पार्टी का नीचे तक विस्तारित नेटवर्क समाप्त हो गया, महिला कांग्रेस,यूथ कांग्रेस,इंटक,सेवादल सहित छात्र संगठन से जुड़े कार्यकर्ता छिटक गए और जिस कांग्रेस ने यूपी से कई बड़े नेता दिए वहां से उसका सफाया हो गया।
आज मध्यप्रदेश में पिछले बीस वषों के अधिक समय से भाजपा की सरकार है लेकिन यहां सत्ता में पार्टी कार्यकर्ताओं की सहभागिता पर निर्मल मन से विचार होता दिखाई नहीं देता है,परिणाम यह है कि कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है।
मध्यप्रदेश में बीजेपी की सत्ता में वापसी हुए सात माह से अधिक का समय गुजर गया लेकिन कार्यकर्ताओं को नियुक्तियों का इंतजार है गाहे बगाहे कुछ चर्चित नेताओं को कृतार्थ करने उनकी नियुक्तियां कर दी गई लेकिन अधिकांश शासी निकाय अभी खाली हैं ।
यहां बताना उपयुक्त होगा कि डॉ मोहन यादव ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के एक माह बाद ही पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल के दौरान निगम मंडल, बोर्ड और आयोग की नियुक्तियों को निरस्त कर दिया था।
इनके अध्यक्ष उपाध्यक्ष व अन्य पदों पर की गई नियुक्तियां खत्म कर दी गई थीं। उस समय कहा गया था कि अब सभी निगम व मंडलों में नए सिरे से नियुक्तियां की जाएंगी। वैसे भी नए जनादेश के बाद नए सिरे से नियुक्तियां की जाती हैं।
इस निर्णय के बाद प्रदेश के कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई थी उन्हें विश्वास था कि सत्ता की चासनी की कुछ मिठास उनके हिस्से भी शीघ्र आएगी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ लोकसभा चुनावों में कार्यकर्ता पूरी दमखम से काम करे इसलिए नियुक्तियां टाल दी गईं हुआ भी ऐसा ही चुनाव बाद पुरस्कार की लालसा को दृष्टिगत रखकर कार्यकर्ताओं ने जमकर मेहनत की और मध्यप्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर बीजेपी का विजयी परचम लहराया ।
ऐसा हुए लगभग डेढ़ माह का समय निकल गया लेकिन कार्यकर्ताओं को अभी तक नियुक्तियों का इंतजार है।
महिला आयोग, अल्पसंख्य आयोग आदि में पद रिक्त हैं। इसी तरह लघु उद्योग निगम, बीज विकास निगम, हाउसिंग बोर्ड, कुक्कुट विकास निगम, स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स डेवलपमेंट कार्पोरेशन लिमिटेड, महिला वित्त विकास निगम, समाज कल्याण बोर्ड, हस्त शिल्प विकास निगम, खादी ग्रामोद्योग बोर्ड और माटीकला बोर्ड सहित तमाम प्राधिकरणों के अलावा दर्जनों शासी निकायों पर कार्यकर्ताओं की जगह नौकरशाही काबिज है।
ग्वालियर के प्रतिष्ठित ग्वालियर मेला प्राधिकरण में भी वर्षों से नियुक्तियां नहीं हुई हैं आलम यह है कि जिस ग्वालियर व्यापार मेला की अंतरराष्ट्रीय पहचान हुआ करती थी समाप्त होकर हाट बाजार जैसे स्वरूप में तब्दील हो गई है। यहां काबिज प्रशासन ने मेले का भट्टा ही बिठा डाला है। यही हाल अन्य शासी निकायों का भी हो चला है। समझ से परे है कि भाजपा के कर्णधारों को कार्यकर्ताओं से ज्यादा नौकरशाहों पर विश्वास क्यों है ?