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भाषाई संवेदनशीलता का पतन

जगदीश गुप्ता

शब्द की अपनी एक यात्रा होती है ।उसके उद्गम से लेकर उसके इतिहास से शब्द का वर्तमान आशय संभव होता है । जिस शब्द की यात्रा हमें पता ना हो’ जिस शब्द का सही आशय हम न जान पाएं तो फिर उस शब्द के माध्यम से हमारे साथ कोई भी बड़ा छल किया जा सकता है।  राजनीति में ऐसे उदाहरणों की एक लंबी श्रृंखला है बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है – अभी एक राजनीतिक चुनाव हुआ और उसके थोड़ा पहले असहिष्णुता शब्द का प्रकट हुआ। लोग वाद विवाद में उलझे रहें और जिन्होंने उस शब्द को प्रक्षेपित किया था वे चुनाव जीतने में सफल रहे।

विदेशी भाषाओं में विशेषकर अंग्रेजी और अरबी के शब्दों ने तो भारत का अहित किया ही है लेकिन मातृभाषा के शब्दों की भी हमारी यात्रा और अनुभूति पूरी न होने के कारण हम अपनी मातृभाषा के शब्दों के माध्यम से भी ठगे गए हैं I लेकिन इसमें भाषा का दोष नहीं है इसमें हमारी अनभिज्ञता और अन्वेषणहीनता  का दोष है।

भाषा शब्दों का ही समुच्चय है। जिस भाषा के साथ आप की अनुभूतियां गहरी नहीं जुड़ी हैं अथवा उन गहरी अनुभूतियों तक पहुंचने की साधना आपकी नहीं है तो कोई भी भाषा आप के विकास के स्थान पर आप के विनाश का कारण भी बन सकती है। बनती है।

 

प्रख्यात नेता अर्थशास्त्री विदेश नीति के जानकार हिंदुत्व के बड़े पैरोकार हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्राध्यापक सुब्रमण्यम स्वामी से अपनी चीन यात्रा के संस्मरण सुनते हुए एक प्रश्न पूछा गया कि चीन आप से क्यों डरता है ?  उत्तर में स्वामी जी ने बताया कि चीन में कहावत है कि उससे डरो जिसे आपकी भाषा आती है ।

कारण स्पष्ट है कि जब आप किसी व्यक्ति की भाषा जानते हैं तो उसके बारे में धीरे-धीरे सब कुछ जानते हैं।

और जल्दी ही आप यह भी जानने लगते हैं कि उसके मन में क्या चल रहा है।

और जब आप किसी के मन में चलने वाली गतिविधियों को जान लेते हैं और यदि वे आपके विरुद्ध हैं तो आप समय रहते उन पर नियंत्रण कर सकते हैं।

इस प्रकाशन का विषय तो है देश की समस्याएं किंतुमैं पाठकों का ध्यान उस समस्या की ओर ले जाना चाहता हूं जिसके कारण छोटी बड़ी हजारों समस्याएं हमारे सामने खड़ी हुई हैं। और वे सब अपने-अपने ढंग से देश को और देशवासियों को भारतवासियों को चुनौती देती हैं ।उनके जीवन में अशांति पैदा करती हैं उनके विकास का मार्ग अवरुद्ध करती हैं। राष्ट्र जीवन में क्लेश पैदा करती है।

और वह समस्या है भाषाई संवेदनशीलता को खो देना ?

भाषा का गौरव हमारे जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है हमारे मानस को किस प्रकार नियंत्रित करता है हमारी मानसिक स्थिति को कहां से कहां तक ले जा सकता है इन विषयों का चिंतन अब समाप्तप्राय है और अनुभव तो नगण्य ही है।

भाषा संस्कृति की वाहक है

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह एक वाक्य यूं तो अपने आप में पूरी कहानी कहता है। किंतु इस कथन के बुद्धिजीवियों के जीवन से निकल जाने का प्रभाव हम स्पष्टता में  देख सकते हैं । बेमेल भाषाओं का समन्वय बेमेल विवाह की तरह होता है। जिससे जीवन में विभिन्न अवसरों पर हम अपने आप को ठगा हुआ या लूटा हुआ अनुभव करते हैं।

इसे दुर्भाग्य कहें या आज के भाषाविद्‌, भाषा के व्याख्याताओं प्राध्यापकों और भाषाई कर्मियों की अयोग्यता कि वे इस बेमेल भाषाई समन्वय को अनेक प्रकार से महिमामंडित करने का प्रयास करते हैं।

किंतु इस बेमेल मिश्रण के कारण राष्ट्र की देह में जो मवाद पड़ा है फोड़े फुंसी और कैंसर जैसे अनेक विक्षेप पैदा हो गए हैं उनके दुख से पूरा देश त्राहि त्राहि कर रहा है । क्योंकि यह रोग एक लंबे काल से पाला गया है। रोग को श्रेष्ठता का पर्याय बताया जाता रहा उसके लिए रोगी को अनेक सम्मान और पुरस्कारों से विभूषित किया जाता रहा।

अंततः परिस्थिति यहां तक पहुंच गई है कि तमाम सारे औषधियां और उपचार कई बार लगता है कि वे निष्प्रभावी हुए जाते हैं।

भाषा मानवीय जीवन के विकास की पहली सीढ़ी है। बच्चा जब पैदा होता है तो सबका प्रयास यही होता है कि उसके विकास के साथ उसकी वाणी का विकास भी हो।  यह वाणी उसको उसकी मां से मिलती है। परिवार से मिलती है। गुरुजनों से मिलती है।इस वाणी में उसे जो शब्दकोष मिलता है उसमें उसकी संस्कृति की विरासत का अनुभव साथ में मिलता है।

भाषा व्यक्तित्व का आभामंडल भी है। जिस व्यक्ति की भाषा में व्याकरण का अनुशासन होता है । उस व्यक्ति के जीवन में प्रत्येक कार्य में आप अनुशासन के प्रति सचेष्टता की  झलक देख सकते हैं।  भाषाई चेतना का यह अद्भुत प्रभाव  व्यक्तित्व पर पड़ता है।

एक कहावत है हर दो कोस पर भाषा और पानी की प्रकृति बदल जाती है। हजारों कोस लंबे और चौड़ाई में विस्तृत हमारे देश में इस प्रकार कितनी ही भाषाएं और बोलियां हैं जो अपने अपने अस्तित्व में अपने अपने गौरव के साथ विराजमान हैं ।इनमें आपस में कोई संघर्ष भी नहीं है ।क्योंकि यह परिवर्तन प्राकृतिक है।और प्रकृति सामान्यतः सदैव प्राणी मात्र के कल्याण के लिए कार्य करती है। अब तो ठगी प्रथा रही नहीं, किंतु हम लोग पढ़ा करते थे ठगों के गांव होते थे। उनकी अपनी भाषा होती थी अपने इस भाषाई कौशल का विकास में अपना ठगी व्यवसाय के लिए करते थे।

यह विकास भारत की प्रकृति के अनुकूल नहीं था क्योंकि यह दूसरे को हानि पहुंचा कर अपने लाभ के सिद्धांत पर आधारित था।

उन दिनों भी जो लोग बहुत यात्राएं किया करते थे वे इस प्रयास में रहते थे कि ठगों की कुछ भाषा सीख लें। उनका  यह भाषा सीखना ठगी करने के लिए नहीं होता था बल्कि उन ठगों से अपना बचाव करने के लिए होता था।

इसलिए बहुत सारी भाषाओं का आना अपनाना बहुत अच्छा माना गया है। जितने व्याप में मनुष्य रहना चाहता है उस ब्याप  की जितनी भाषाएं हैं जितनी भंगिमाएं हैं जितने संकेत हैं -उनके आशय और उनके विज्ञान पता होना चाहिए।

महात्मा गांधी कहा करते थे की अच्छी अंग्रेजी इसलिए आनी चाहिए क्योंकि हम जान सके कि अंग्रेज हमारे बारे में क्या योजना कर रहे हैं सोच रहे हैं ? लेकिन हमें अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए। अपनी भाषा में हमारा व्यवहार होना चाहिए ।ताकि हम अपनी निजी उन्नति को अपने देश के लोगों तक पहुंचा सके।

हमारे देश के हमारे साथी ,हमारे नागरिक – जिस भाषा को नहीं जानते ,यदि हम उस भाषा में अपना कार्य व्यवहार रखेंगे तो उसका तात्कालिक लाभ भौतिक रूप से तो उन व्यक्तियों तक पहुंच सकता है लेकिन निपुणता और स्वाबलंबन से वे वंचित रहेंगे।

अंग्रेजों के कालखंड में  इस बात के पर्याप्त प्रयास किए गए कि पढ़ाई का माध्यम आंग्ल भाषा हो।

अंग्रेजों के जाने के बाद आंग्ल भाषा के माध्यम का औपचारिक हउआ तो समाप्त हो गया लेकिन तब तक जनमानस में यह धारणा बन गई कि आंग्ल भाषा के बिना धन और जन हेतु अच्छी सेवाओं में प्रवेश पाना नितांत असंभव है । आज श्रेष्ठतम शिक्षा संस्थानों, शोधशालाओं में जितने भी शोध प्रबंध होते हैं। जितने भी पत्र व्यवहार होते हैं। उन सबके लिए आंग्ल भाषा का प्रयोग किया जाता है। और इसका परिणाम यह होता है कि भारत का जनमानस तो नहीं जानता कि इन विद्वानों ने क्या शोध किया ?क्या उपलब्धियां प्राप्त की? उसका कोई व्यावसायिक लाभ देश ले सकता है या नहीं ?

किंतु आंग्ल भाषा में होने के कारण इन शोधो तक  यूरोपीय देशों की पहुंच बहुत आसान होती है। और वह उन शोधों में थोड़ा सा कुछ घटाकर बढ़ाकर ,उन्हें अपने नाम पर पंजीकृत करा लेते हैं। और यदि  संभव होता है तो उस पर व्यापारिक उत्पादन भी आरंभ कर देते हैं। उसका जो लाभ भारत को मिलना चाहिए था उल्टे हमें अपनी पूंजी गंवा कर अपनी ही बौद्धिक योग्यता की हानि सहकर उसे खरीदना पड़ता है। देश की कितनी बड़ी आर्थिक व्यवस्था इससे प्रभावित होती है इसे आंकड़ों में ले जाने के लिए एक अलग आलेख की आवश्यकता होगी। जापान और चीन रूस इस विषय पर एक अच्छे उदाहरण के रूप में हमारे समक्ष आते हैं। ये शोध अपनी भाषा में होने के कारण ये देश वैज्ञानिक महाशक्ति के रूप में अपनी बढ़त बनाए हुए है । उधर अमेरिका और इंग्लैंड के बारे में तो आप स्पष्ट कह सकते हैं कि वहां की वैज्ञानिक प्रगति में भारतीय मेधा का बहुमूल्य योगदान है किंतु उस योगदान की प्रतिष्ठा अमेरिकनों को प्राप्त है अंग्रेजों को प्राप्त है भारतीयों को प्राप्त नहीं है।

इतना ही नहीं जब आप भारतीय भाषाओं के प्राध्यापकों को अपना कार्य अंग्रेजी में करते हुए देखते हैं तो किसी भी गौरवशाली भारतीय के मन की क्या स्थिति होती होगी आप अनुभव कर सकते हैं मैंने खुद अपने नगर के एक महाविद्यालय में हिंदी विभाग के सामने अंग्रेजी में लगी हुई नाम पट्टिका देखी Hindi Department और जब मैंने वहां के विभागाध्यक्ष से इस बारे में बात करनी चाहिए तो उनकी अकड़ देखते बनती थी वह कहते थे आपने ठेका ले रखा है क्या आप यही ठीक कर आएंगे सब जगह यही हो रहा है और उनकी भाषा में भी 30% शब्द अंग्रेजी के होते थे मैंने उनसे निवेदन किया कि यदि आप शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकते  तो शुद्ध अंग्रेजी बोलिए । पर अंग्रेजी भी नहीं आती थी और उन्हें हिंदी भी नहीं आती थी।  कितना बड़ा दुर्भाग्य है ?।

कहने का आशय यह है की अंग्रेजी हमें आनी चाहिए और बहुत अच्छी आनी चाहिए ताकि हम विकसित देशों के शोध पत्रों को पढ़कर उनके द्वारा किए गए कार्यों को पढ़कर समझ कर और अपने नए शोध अनुसंधान के नए आयाम स्थापित कर सकें। लेकिन हमारे ये शोध कम से कम चोरी हो या सहजता से अन्य देशों को उपलब्ध न हो, इसके लिए हमें अपने शोध प्रबंध अपनी मातृभाषा में प्रस्तुत करने चाहिए।

अपने पत्राचार भी हिंदी में करना चाहिए।

यह चर्चा करते हुए कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं तो क्या वे हिंदी सीख कर आपके शोध की जानकारी नहीं ले पाएंगे ?

बहुत स्वाभाविक बात है कि यदि वे हिंदी सीखेंगे तो वे यहां की संस्कृति से भी परिचित होंगे  और और यहां मैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस वाक्य को पुनः दोहराना चाहता हूं कि भाषा संस्कृति की वाहक है ।अतः निश्चित तौर पर उन्हें भारत से भी थोड़ा प्रेम हो जाएगा। और जब वे भारत से प्रेम करने लगेंगे तो फिर भारत की हानि करने की उनकी इच्छा भी कम से कम होने लगेगी । अतः यह उपाय अधिक निरापद है।

आजकल जो अंग्रेजी और हिंदी में लाकर हिंगलिश चली है उसके विषय में तो बात करना समय नष्ट करना है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों से जब आप बात करते हैं तो आपको शीघ्र ही पता लगता है कि उनके तत्व ज्ञान , और शब्द भंडार भी, दोनों का स्तर बहुत ही उथला है।  अपनी कोई भी बात पूरी कहने के लिए ठीक शब्द उनके पास कभी नहीं होते।

जिन व्यक्तियों के पास ज्ञान नहीं होता लेकिन उन्हें किसी तरह से कोई झूठा सम्मान मिल रहा होता है तो वह वे आडंबर का जीवन जीते हैं। आडंबर का जीवन जीने वाले नागरिक देश को समाज को परिवार को दुख देने के सिवा कुछ नहीं करते। जय सदा भयभीत रहते हैं। उन्हें अपने भविष्य की चिंता सदैव रहती है और इसलिए ऐसे ही लोग देश के समाज के दुश्मनों के आसान सहयोगी होते हैं या इन्हीं के जयचंद होने की संभावनाएं गद्दार होने की संभावनाएं सर्वाधिक होती हैं।

अब एक दूसरे विषय पर बात करते हैं पिछले दिनों दिल्ली में दंगा हुआ और उसमें लोगों ने अनुभव किया तो वहां जो इस्लामिक विश्वविद्यालय हैं या इस्लामिक संस्थान हैं उनमें जो नारे लिखे हुए हैं अरबी भाषा में लिखें हैं । वे लोग जो भाषा प्रयोग करते हैं कहने को वे उसे उर्दू कहते हैं किंतु उसमें अरबी शब्दों की बहुलता होती है। और उन शब्दों को हमारे सामान्य बौद्धिक लोग बहुत जानकर भी बहुत हद तक नहीं जान पाते ।

भारत में जब राजनैतिक इस्लाम का प्रवेश हुआ तो उसने बहुत चतुराई से यहां बहुत लोगों को भय के बल पर इस्लाम स्वीकार करने को विवश किया ।

भारतीयों ने भय से इस्लाम तो स्वीकार किया किंतु उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं छोड़िए अपनी भाषा भी नहीं छोड़ी’ ।

इस्लाम में दीक्षित हो चुके यह भारतीय, अरबी तुर्की फारसी जैसी भाषाएं सीखने के लिए तो बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। भाषा जीवन से इतना जुड़ी होती है कि कई बार लोग पूजा पद्धति बदलने पर भी अपनी भाषा नहीं बदलते। बांग्लादेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अंदर बलूच और पंजाबी सिंधी इसका उदाहरण है। तब और भी चतुराई दिखाते हुए राजनैतिक इस्लाम के प्रवर्तकों ने यहां एक भाषा का आविष्कार किया। जिसको पहले से ही रेख्ता कहा जाता था। जो फारसी भाषा का शब्द है और जिसका अर्थ होता है कचरा । अच्छे ढंग से कहें तो उसे मिश्रण कह सकते हैं। हालांकि मिश्रण और कचरे में यह अंतर होता है कि किसी भी मिश्रण तय होता है कि घटकों का अनुपात क्या होगा ?और कचरे में ऐसा नहीं होता।

इसे उर्दू कहा गया जिसका अर्थ होता है – छावनी । यहां के लोगों को भ्रमित किया गया की यह भारत की भाषा है । इसके लिए एक लिपि भी तैयार की गई । जिसका मुख्य उद्देश्य था जासूसी के लिए संदेश भेजने के लिए कूट लिपि के रूप में उपयोग करना।

तब भारत के जो व्यापारी थे या राजा थे ,उनके दरबारों में अरबी तुर्की फारसी और आंग्ल भाषा आदि यूरोपीय भाषा जानने वाले लोग नौकरी किया करते थे। भारतीय राजाओं के और व्यापारियों के अंतरराष्ट्रीय संबंध होते थे इसलिए उन्हें इनकी आवश्यकता भी पड़ती थी। और अरबी फारसी लिपि के संदेश यहां आसानी से पढ़ लिया जाते थे इसलिए कूट लिपि के रूप में एक नई लिपि तैयार की गई जिसे उर्दू कहा गया।राजनीतिक इस्लाम के प्रसार के लिए एव नव तुस्लिमों को निज भारतीय संस्कृति से काटने के लिए भारतीय भाषाओं से काटना आवश्यक था ।अरबी तुर्की संस्कृति से जोड़ने के लिए उर्दू को माध्यम के रूप में अपनाने की रणनीति तय की गई जो तब से आज तक सफलतापूर्वक संपादित की जा रही है। इसीलिए मदरसों में अरबी रटने वाले तोते भारतीय सांस्कृतिक विविधता के सौंदर्य से पूरी तरह कटे रहते हैं ।

भारतीय भाषाओं से कटे हुए लोग सामान्यतया ज्ञान के उच्च स्तरों को प्राप्त नहीं करते ।और इसके कारण इनकी तर्क क्षमता समाप्त हो जाती है । जो कि राजनीतिक इस्लाम के लिए प्रसार के लिए बहुत आवश्यक तत्व है। जिज्ञासा रखने वाले और प्रश्न करने वाले तर्क करने वाले लोग राजनीतिक इस्लाम के साथ बिल्कुल नहीं रह सकते । इसीलिए कहा जाता है जिज्ञासु और तर्कशील विश्लेषक मुसलमान नहीं हो सकता या फिर वह जिज्ञासु तर्कशील और विश्लेषक नहीं हो सकता। राजनीतिक इस्लाम के अनुयायियों के रूप में तो कतई नहीं रह सकते। अतःभारतीयो को भारतीय संस्कृति से काटने का माध्यम उर्दू को बनाया गया। इन तर्कहीन जिज्ञासा मुक्त  व्यक्तियों को अरबी भाषा में उपदेश दिए जाते हैं -जिनके अर्थ इनकी समझ में नहीं आते ।और इस प्रकार से यह इनके पास इसके सिवाय कोई उपाय / विकल्प नहीं होता कि जो कहा जा रहा है वह केवल उसका अनुसरण करें। जिन अरबी शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उनके वास्तविक अर्थ भी इनमें से बहुत कम लोग जानते हैं। और जो लोग उन अर्थों को अधिक जानते हैं उन्हें सामान्यतया राजनीतिक इस्लाम वाले नेतृत्व टोली में शामिल कर लेते हैं ।जिससे कि वे भी षड्यंत्र का हिस्सा बने रहें । इस भाषा का प्रसार हो सके इसके लिए इसे अपनाने वाले और सब का गौरव बखान करने वाले गैर मुस्लिमों को अनेक पुरस्कार दिए जाने की परम्परा आरंभ की गई । इस भाषा का आकर्षण बढ़ाने की दृष्टि से इस को विशेषकर गणिकाओं के बीच प्रचलित करवाया गया। ताकि उस दैहिक आकर्षण में फंसे लोलुपों के माध्यम से न केवल इस भाषा का प्रचलन बढे़ साथ ही राजनैतिक इस्लाम के वाहक प्रचार क के रूप में वे अपने भारतीय समुदायों में विचलन और अनास्था  पैदा हो सके ।

उर्दू को भारतीय भाषाएं कहने वाले एक बार उर्दू की शब्दकोश पर दृष्टि डालने उसमें एक भी मौलिक उर्दू का शब्द नहीं है सारे शब्द अरबी फारसी और तुर्की से आए थे थे जब भी कोई श्रेष्ठ उर्दू बोलने का प्रयास करता है और उसे नए शब्दों की आवश्यकता होती है तो वह अरबी से नए शब्द प्राप्त करता है इस प्रकार उर्दू अरब संस्कृति की ओर ले जाने वाली सेतु भाषा है। किसी संस्कृति को जानना बुरा नहीं है किंतु जब यह कार्य छद्म रूप से किया जाता है तो निश्चित तौर पर उसके उद्देश्य अच्छे नहीं होतेऔर इसका उद्देश्य है अंततः भारत को अरबों का गुलाम बनाना।

जिस तरह अन्य भाषाओं को अपनाया जा सकता है उस तरह अरबी तुर्की और फारसी को सीखने में भी किसी के मन में असुविधा नहीं होनी चाहिए बल्कि उन्हें अच्छी तरह से सीखना चाहिए। किंतु उर्दू की आड़ में ऐसे शब्द भी प्रयोग में हैं  जिन के दो अर्थ प्रचलित किए गए हैं ।एक अर्थ भारतीयों के लिए या भारत में नव मुस्लिमों के लिए और उसी शब्द का दूसरा अर्थ जो कट्टर राजनीतिक मुस्लिमों के लिए है ।

जैसे “हिंदू ” शब्द – हम सब की अवधारणा में यह एक भौगोलिक शब्द है या एक भारत भूमि की पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोगों के समूह को हिंदू कहा जाता है। लेकिन कट्टर राजनीतिक मुसलमान जब हिंदू शब्द का अर्थ अरबी और फारसी की शब्दकोश में देखते हैं तो वहां उन्हें अर्थ मिलता है चोर बर्बर लुटेरे उठाईगीरे आदि।

स्वाभाविक है जब वे अपनी अरबी भाषा में कहते हैं कि गैर इस्लामिक भारतीय लोग काबिले कत्ल हैं तो इस अर्थ के साथ किसी के भी गले में यह तथ्य उतर सकता है। कि बर्बर लुटेरे ठग को मार देने में क्या आपत्ति है?

एक शब्द प्रचलित है “गनीमत ” – हम लोग “भगवान की कृपा ” जिसका अर्थ जानते हैं ।लेकिन उसका अर्थ क्या है उसका अर्थ है लूट का माल।

अब लूट का माल लुटेरों के लिए जो विदेशी आक्रांता है उनके लिए तो भगवान की कृपा हो सकती है ।हमारे लिए कैसे हो सकती है। तो उनके शब्दकोश में इसका अर्थ अलग है लेकिन हमें जो अर्थ बताया कि हम उस तरह से उपयोग कर रहे हैं।

खिलाफत शब्द से तो पूरे देश ने धोखा खाया। खिलाफत तुर्की का शब्द है और जिसका अर्थ होता है खलीफा का राज्य । भारत के सामान्य जन असहयोग आंदोलन को ही खिलाफत आंदोलन समझते रहे। आज भी बहुत सारे लोग विरोध के लिए खिलाफत शब्द का प्रयोग करते हैं।

“काफिर “शब्द का अर्थ जो हम जानते हैं – कि गैर मुस्लिम ही काफिर है। जबकि काफिर शब्द का सही अर्थ होता है “सच को छुपाने वाला “इन अर्थों में कौन काफिर हुआ ? यह सहज ही समझा जा सकता है। ऐसा ही एक और शब्द है जिहाद जिसका अरबी में अर्थ होता है संघर्षशीलता । अरबी में सामान्य उदाहरण में प्रयोग करते हैं कि व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के लिए जेहाद / संघर्ष करना चाहिए ।और यहां भारत में उसका अर्थ क्या बताया जाता है ?

मुसलमानों को समझाया जाता है कि जेहाद करके इस्लामिक राज्य की स्थापना करो। जेहाद  का अर्थ धर्मयुद्ध है ऐसा उनको इसका अर्थ समझाया जाता है।

 

ऐसे शब्द हैं जिन्हें नहीं जानने के कारण एक तो हम ठगे जाते हैं और दूसरे कभी आवश्यकता पड़े तो हम ठीक से प्रतिकार भी नहीं कर सकते ।ऐसे ही बहुत सारे अन्य शब्द होंगे जो चल रहे हैं।

अभी दिल्ली में जब दंगा हुआ तो दीवारों पर जो लिपि लिखी गई वह भारत के पुलिस वालों को भी समझ में नहीं आ रही थी। लेकिन जिनको उसका संकेत लेना था वह आसानी से ले रहे थे ।इसलिए मातृभाषा के अलावा अन्य भाषाओं का आना बहुत आवश्यक है। और अच्छी तरह आना और अधिक आवश्यक है।

किंतु अपना कार्य व्यवहार और गौरव मातृभाषा में हो भारतीय भाषाओं में हो यह परम आवश्यक है

और जब यह नहीं हो रहा है । तब यह देश की सबसे बड़ी समस्या हो जाती है क्योंकि इस कारण हजारों छोटी-छोटी समस्याएं पैदा होती हैं जिनका देशव्यापी गहरा और दूरगामी हानिकारक प्रभाव होता है।

 

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