प्रवीण दुबे
समय बेहद गतिमान है जो आज है वो कल नहीं रहेगा और जो कल होना है वह भी स्थाई नहीं रहने वाला इस दृष्टि से पुराना बीत गया और नया हमारे सामने है। नए का स्वागत और जाने वाले को विदाई यह हमारी सनातन संस्कृति की परंपरा रही है,और युगों युगों से हम ऐसा करते भी आए हैं । अंग्रेजी नववर्ष अर्थात 2024 का स्वागत इसी परंपरा का प्रतीक है। लेकिन परंपरा के साथ अपना देश, संस्कृति,भाषा, धर्म और तमाम मान्यताओं को जीवंत रखने की जिम्मेदारी भी आखिर हमारी ही है और हमने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया भी है। बावजूद इसके हमारी उदारता,सहजता, संस्कार और सर्व धर्म समभाव के संस्कारों का लाभ उठाकर पहले मुगलों ने फिर अंग्रेजों ने हमारे देश पर शासन किया। तलवार की दम पर हमारी सांस्कृतिक विरासत को समाप्त करने का कुचक्र चलाया गया, हमारे देश,धर्म और परम्पराओं को टारगेट किया गया जिसके तमाम प्रमाण अभी तक हमें गुलामियत का अहसास कराते हैं उनको अपने मूल स्वरूप में लाने के लिए हमें आज तक संघर्ष करना पड़ रहा है। अयोध्या,मथुरा काशी इसका बड़ा उदाहरण हैं। ऐसी स्थितियों परिस्थितियों ने अब हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है। एक तरफ देश जाग रहा है तो दूसरी तरफ सनातन को समाप्त करने की चुनौती मुंह बाए खड़ी है। जरा सोचिए क्या सनातन के बिना इस देश की कल्पना तक की जा सकती है। विचार करिए एक तरफ हमें समाप्त करने की खुली चुनौती है तो दूसरी तरफ वह लोग हैं जो विविध अवसरों और हमारे उदार और सर्व धर्म समभाव के संस्कारों की आड़ में हमसे वह सब कुछ कराने की कोशिश करते हैं जो कहीं न कहीं सनातन को समाप्त करने के षडयंत्र को बल प्रदान करता है। नए साल का लाभ उठाकर हमारी मानसिकता में पाशात्य संस्कृति,बाजारवाद और मातृभूमि की जगह ग्लोबलाइजेशन का गंदा कीड़ा तो समाविष्ट नहीं कराया जा रहा ,हमारे बीच छुपे बैठे कालनेमियों को पहचानना होगा साथ ही यह याद रखना होगा कि कलेंडर बदलना एक सामान्य घटनाक्रम है लेकिन उसकी आड़ में कहीं हम अपना नवसंवत्सर तो नहीं भूल रहे,कहीं पाश्चात्य सभ्यता के रंग में हम अपनी सनातन परम्पराओं के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे। इस अवसर पर राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा वर्षों पूर्व लिखी कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं ।