राजकिशोर वाजपेयी” अभय
(14सितंबर हिंदी दिवस पर विशेष) हिंदी भारत की राजभाषा है पर उसे राष्ट्रभाषा के गौरव से विभूषित होना है, सभी भारतवासी इस बात से चिंतित हैं कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा आधिकारिक रूप से नहीं है। यूं तो कई भाषाएं भारतीय संविधान के तहत भारतीय भाषाओं के रूप में अधिकृत हैं किंतु भारत की अधिकांश जनसंख्या हिंदी भाषा ना केवल बोलती है बल्कि समझती भी है। हिंदी का विस्तार भारत के बाहर भी विश्वव्यापी है फिर चाहे हम बात अमेरिका की करें, ब्रिटेन की करें ,रूस की करें, मॉरीशस की करें, फिजी की करें सभी जगह हिंदी न केवल बोली जाती है बल्कि समझी भी जाती है ।आज आधिकारिक रूप से यदि सर्वेक्षण किया जाए तो बहुत संभव है कि हिंदी को विश्व की सबसे ज्यादाबोलने वाली भाषा के रूप में माना जाने लगे ।चीन की मैंडेरिन भाषा फिर दूसरे नंबर पर पहुंच जाए।
लेकिन भारत की राष्ट्रभाषा बनने के लिए हमारे हिंदी साधकों को और हिंदी की रोटी खाने वालों को भी तन मन धन से न केवल समर्पित होना होगा वल्कि हमें *कर्म* *साधना* भी करना होगी केवल वाणी की साधना करने से, आख्यान व्याख्यान और सेमिनार, गोष्ठियों से ज्यादा भला नहीं होने वाला है। *किसी भी देश की सर्वांगीण* *प्रगति उसकी* *आध्यात्मिक विरासत और* *वैज्ञानिक सोच के साथ* *प्रदान की जाने वाली* *शिक्षा में निहित होती* *है* ।
हमारी *चिकित्सा* , *न्यायपालिका हमारी* *अभियांत्रिकी* *जैसी* *तकनीकी शिक्षाएं* हमारी भाषा में न होकर औपनिवेशिक भाषा *अंग्रेजी* में है। क्या यह हमारा दायित्व नहीं है कि हमारे हजारों हजार स्कूलों कॉलेजों के हिंदी के अध्यापक, प्राध्यापक जो अंग्रेजी भी जानते हैं, वे उपरोक्त क्षेत्रों की पुस्तकों का अनुवाद एक वर्ष की समय सीमा लेकर करने का भागीरथ प्रयत्न करें?। *क्या* *हम अपने शैक्षणिक* *कोर्स को* *अद्धतन करते हुए अधुनातन* *नहीं बना* *सकते* ?।जिसमें हमारे पूर्वजों का जो संचित ज्ञान है, जो ज्ञान परंपरा है ,उसका समावेश हो सके।
यदि हम ऐसा कर सके तो कोई कारण नहीं कि हम अपने देश को नए निर्माण के साथ प्रगति के नए सोपान र्रचते हुए ना देख सके।
कहा भी गया है:
निज भाषा उन्नत अहे
उन्नति सबको मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के
मिटे न हिय को सूल।
जिसको अपने देश और अपनी भाषा पर गर्व नहीं होता वह अपने नागरिक धर्म का पालन कर रहा है ऐसा नहीं माना जा सकता ।
भाषा परिवर्तन का बहुत महत्वपूर्ण साधन होती है यह हमारा मानसिक परिष्कार करते हुए हमें विदेशी गुलामी कू दैन्य भाव से मुक्त कर सकती है। हम विदेशी भाषा से विदेशी संस्कृति का भले ही भला करते हुए यह सोचें यह हम तो विश्व नागरिक हैं पर सच्चाई यह है जो स्वयं के देश का नहीं होता, अपने समाज का नहीं होता वह वास्तव में किसी का नहीं होता ।ऐसे व्यक्ति अपने कर्तव्यों के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं और दिखावा भले ही कितना भी कर ले अंततोगत्वा वह राष्ट्र के लिए निर्थक ही होते हैं।
आज हिंदी दिवस पर यह विचार करने का समय है कि हम कैसे अपनी भाषा में अपनी *स्वास्थ्य सेवाएं,* *न्याय सेवाएं, तकनीकी* *शिक्षाएं जिसमें चिकित्सा* *और* *अभियांत्रिकी सभी शामिल* *हैं* *हैं, कैसे दे सकते* ।
क्या हम अपने दक्ष शिक्षकों के माध्यम से और हिंदी भाषी हिंदी-सेवकों से यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह अच्छे अध्ययन कार्यक्रम और पाठ्यक्रम तैयार करते हुए ऐसा वातावरण रचें जिसमें *भारतीय जीवन मूल्यों की* *दिव्यता और भव्यता भी* *हो।*
विश्व आज भी तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद इसके कारण उत्पन्न हुई मानसिक समस्याओं से जूझ रहा है जिसका *समाधान* *भारत की मानवता और विश्व* *बंधुत्व की कामना* *लिए संस्कृति में छुपा हुआ है*।
हमारा ज्ञान संस्कृत भाषा के अक्षय कोष से परिपूरित है। क्या हम संस्कृत, अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं के ग्रंथों का भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी में प्रमाणिक और सरल, सहज, सुगम,वोधगम्य अनुवाद कर सकते हैं ।यही *यक्ष प्रश्न* हमें आज हिंदी दिवस पर अपने आप से करना है। और ऐसी योजना बनानी है, जिससे समयवद्ध योजना के माध्यम से हम परिवर्तन की वह वानगी प्रस्तुत कर सकें जिसकी अपेक्षा यह देश 74 सालों से कर रहा है। नई शिक्षा नीति हमें वह आधार देने को तैयार है, जिससे हम भारत मां के सपनों को साकार कर सकते हैं।स्वाधीनता का यह 75 वाँ वर्ष अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है ।क्या है यह 75 वां वर्ष हमारे हमारे शैक्षणिक वातावरण का भारतीय स्वरूप प्रस्तुत कर सकता है। हम आज मंगल ग्रह तक उड़ान भर रहे हैं, तकनीकी रूप से सूचना क्रांति में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं, हमारी सेनाएं विश्व की सर्वोत्तम सेनाएं हैं, हम दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चलाने में सक्षम है, हम कोरोना महामारी का क्षमता से मुकाबला कर सकते हैं, हमारी सामर्थ अनंत है!
हम अपने पर विश्वास करना सीखें। हम अनुवाद के माध्यम से ,*मौलिक लेखन* के माध्यम से, हिंदी भाषा को भारतीयता के परिवेश में प्रवेश करा सकते हैं, जो भारत को विश्व पटल पर उसके वैश्विक स्वरूप में, मानव वादी चेहरे के रूप में, संस्कृतिक राष्ट्र के रूप में, देखने को दिखाने को सक्षम बनाती है।
आओ! हम अपने दायित्व बोध के साथ हिंदी दिवस मनाए। यह दिवस अपनी भाषा में न्याय दे सके, अपनी भाषा में शिक्षा दे सके, अपनी भाषा में चिकित्सा दे सके, अपनी भाषा में साहित्य का रसास्वादन करा सके, विश्व साहित्य को भी हम अपनी भाषा में पढ़ सकें, नई तकनीकी अविष्कारों को अपनी भाषा में लिख सकें, नए अविष्कार अपनी सोच के साथ कर सकें और रच सकें ऐसी दुनिया जिसकी दुनिया भर में भारत से अपेक्षा है। विश्वास मानिए भारतीय सब कर सकता है क्योंकि हम उन ऋषियों की संताने हैं जिन्होंने विश्व भर को *आर्य* अर्थात *श्रेष्ठ* बनाने की *कामना* और *साधना* की है।
आऐ! हिंदी को उसका स्थान दिलाएं।हिंदी को संस्कृत के सौरभ से महकाऐ।
हिंदी दिवस हमें हमारे दायित्व बोध की याद दिलाता है। क्या हम उसे समय सीमा में पूरा करने को तत्पर हैं!।यही स्वाधीनता की अमृत महोत्सव की बेला की पुकार भी है जो राष्ट्र अपनी भाषा में बोलता है, विश्व उसे हमेशा बहुत सम्मान के साथ देखता है, प्रगति तो साथ साथ चलती ही है ।राष्ट्र की सुख समृद्धि भी अपने पंखों को उड़ान के लिए खोलती है। हिंदी ही राष्ट्र की भाषा है हिंदी ही राष्ट्र की आशा है हम आशा के दीप जलाए हीनता और दीनता का भाव है उसे और उसके अंधकार को मिटा दें।
जय हिंद जय हिंदी।
लेखक राष्ट्रवादी लेखक सत्तम्भकार व कवि हैं