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हीरक जयंती बर्ष लेखमाला : संघ की स्थापना का लक्ष्य भी स्वतंत्रता ही था

       जगदीश गुप्त महामना

 

किसी भी कार्य की सफलता में जितना योगदान प्रत्यक्ष कर्ताओं का होता है उससे कई गुना अप्रत्यक्ष सहयोगियों का होता है। युद्ध राजा जीतता है किंतु अदम्य साहस सैनिक दिखाते हैं ।और बलिदान भी सैनिक ही देते हैं । रणनीतिकार सेनापति होते हैं। सूचना तथा सैन्य सामग्री को पहुंचाने में अनवरत जुटे रहने वाले साहसी सैनिक ही विजयश्री का वरण करवाते हैं।नागरिको से मिलने वाला नैतिक समर्थन , आदर और प्रश्रय सैनिको के मनोबल को अमृतपान कराते हैं । उनकी जिजीविषा , उत्साह व मनोबल को बढ़ाते हैं । इन सबका साझा परिणाम ही विजयश्री के रूप में राज्य / देश वरण करता है । राजा तो प्रतीक भर होता है ।
ब्रिटिश भारत में इंग्लैंड की सत्ता को चुनौती मिलती ही रहती थी। 1857 की सशस्त्र क्रांति में हुए अंग्रेजी फौज के रक्तपात से इंग्लैंड के शासक भयभीत हो चुके थे। भारत की सांस्कृतिक एकता का यह भीषण प्रदर्शन चाणक्य के बाद पहली बार हुआ था। इंग्लैंड में नीति निर्माता स्तब्ध थे और स्थानीय जनता के रोष का सामना कर रहे थे। ऐसे में जनाक्रोश को अपने समक्ष प्रकट करने और समय रहते उसका प्रबंधन कर उसे समाप्त करने के लिए किसी उपकरण की खोज हो रही थी। माना जाता है ऐसे में ए ओ ह्यूम ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बढ़ते हुए जनाक्रोश के लिए सेफ्टी वॉल्व के रूप में सभा अर्थात कांग्रेस की स्थापना की। सामान्य जन में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए चेतना कसमसा रही थी । इसी कड़ी में सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में 1876 में ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध के लिए इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई थी। अट्ठारह सौ चौरासी में बंगाल में नेशनल लीग बनी थी उसी साल मद्रास में महाजन सभा और 1885 में मुंबई प्रेसिडेंसी की स्थापना भी हुई थी। यह सभी भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए खड़े होने का प्रयास कर रहे थे। ऐसे में स्वयं एक अंग्रेज ए ओ ह्यूम ने 1885 में ही भारतीयों की सभा अर्थात इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करके इन सब को विफल कर दिया।प्रकटतः तो इसके उद्देश्य में भारतीयों का सम्मान और आर्थिक स्थिति सुधारने वाली मांगों को ब्रिटिश सरकार से मनवाना था। किंतु सरकार के हितेषियोंतथा गुप्तचरों की पैठ काँग्रेस में होने के कारण, ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संभावित शक्तिशाली नेतृत्व के उभरने की संभावना को नष्ट करने का काम ही इसके माध्यम से होता रहा। यह आरोप लगातार इस सभा के कुछ नेताओं पर लगते रहे हैं।
ब्रिटिश सरकार चाहती थी एक ऐसी अखिल भारतीय संस्था हो जिससे भारतीय मानस का पता चलता रहे। उसकी दृष्टि में भारत पर शासन करने के लिए आवश्यक था।
क्रांतिकारियों को मिलने वाले सहयोग के पीछे किन्हीं असंतुष्ट भारतीय राजाओं का गुप्त सहयोग होता था। ऐसे में भारतीय राजाओं के विरुद्ध भी जनता में एक प्रतिकारी संगठन के रूप में कांग्रेसका उपयोग करना और इन राजाओं को नियंत्रित करना इसका एक गोपनीय उद्देश्य था इसकी चर्चा प्रायः नहीं के बराबर हुई है। कांग्रेस के नेतृत्व में स्थानीय राजाओं के विरुद्ध अनेक छोटे-छोटे स्थानीय आंदोलन हुए । जिससे राजा और प्रजा के बीच का सद्भाव नष्ट करने की योजना को सफलतापूर्वक संचालित किया गया। यही कारण था कि भारतीय राजा धीरे-धीरे कमजोर पड़ते गए और वह ब्रिटिश शरण में बने रहने के लिए विवश रहे।
डॉ हेडगेवार जब कोलकाता में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे थे तभी वे देश की नामी संस्था अनुशीलन समिति के सदस्य होकर स्वतंत्रता के लिए काम करने लगे थे। नागपुर लौटकर 1915 में कांग्रेस से जुड़े और विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस के सचिव भी बन गए। कांग्रेस में वह इतनी तेजी से सक्रिय हुए कि 1921 में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण 1 वर्ष जेल में भी रहे। 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस के इतिहास में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाने का प्रस्ताव भी डॉक्टर साहब ने ही रखा था। जो तब पारित नहीं हुआ। डॉक्टर साहब कांग्रेस की दुर्बलताओं को बहुत गहराई से समझ चुके थे I अब उनके मन में यह धारणा बलवती होने लगी थी कि तब की कांग्रेस तो ब्रिटिशर्स के हित साधने का माध्यम है। उन्होंने राजा प्रजा के बीच में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बीज बोने वाले, राजा प्रजा में वैमनस्यता बढ़ाने वाले और भारतीयों के आक्रोश को समय से पहले जानकर उसे नष्ट कर देने वाले षड्यंत्र को ठीक से समझ लिया था | और यह भी समझ लिया था कि इसमें निश्चित तौर पर उस समय के कांग्रेस के कुछ न कुछ नेता शामिल रहते हैं। 1919 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में निर्वाचन कराने का प्रस्ताव रखा तब डॉक्टर साहब की दूरदृष्टि यह देख चुकी थी कि लोकतंत्र का यह सपना केवल दिखाने के लिए है। इससे निकलने वाला नेतृत्व जनता के हित में नहीं बल्कि कंपनी सरकार के हितों की चिंता करेगा I और बदले में अपनी स्वार्थ लिप्साओं की पूर्ति करेगा। जिसका खामियाजा अंततः भारत की जनता को ही भरना पड़ेगा। इसी बीच तुर्की के खलीफा की गद्दी बचाने के लिए हुए खिलाफत आंदोलन में गांधीजी और कांग्रेस जनों की भूमिका देखकर वे पूरी तरह आश्वस्त हो गए कि भारतीय जनता की स्वतंत्रता की आकांक्षा से अपनी विरोध की ऊर्जा को खिलाफत आंदोलन के नाम पर नष्ट किया जा रहा है।
खिलाफत आंदोलन वस्तुतः भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के विरुद्ध हुए सबसे बड़े षड्यंत्रों में से एक है ।जिसमें भारत की गैर मुस्लिम जनता तथा अनपढ़ मुस्लिम जनता, जिसे तुर्की के खलीफा से कुछ भी लेना देना नहीं था, जुड़ती चली गई – क्योंकि वह खिलाफत शब्द का अर्थ *विरोध* समझ रही थी । और इस आंदोलन को भारत में अंग्रेजी राज का विरोध समझ रही थी। जनता के साथ किया गया यह एक बड़ा राजनीतिक धोखा था । और यही डॉक्टर साहब को स्पष्ट हुआ कि भारतीय भाषाओं और भारतीय चेतना के जागरण से ही ऐसे षङ्यंत्रों को विफल किया जा सकेगा। पूज्यनीय डॉक्टर साहब देख पा रहे थे कि जब ऐसे षड्यंत्र विफल होंगे तो स्वतंत्रता आंदोलन की शक्ति अपार होगी और उसे यह ब्रिटिशर्स नहीं झेल पाएंगे। इसीलिए डॉक्टर साहब ने कहा शत्रु शक्तिशाली है, यह कहना ठीक नहीं है । हम दुर्बल हैं यही हमारी विफलता का कारण है। अपनी दुर्बलता दूर करके ही हम शत्रु को पराजित कर सकते हैं ।
अतीत में हुए विदेशी हमलों की सफलता और भारतीय राजाओं के पराभव का कारण भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की दुर्बलता है । यह भी वे समझ गए थे। अपने लक्ष्य और कार्यों का समय से पहले प्रचार भी , किए गए कार्यों की फल श्रुति को नष्ट कर देता है |यह भी उन्होंने ठीक से अनुभव कर लिया था।
तब उन्होंने निर्णय किया कि वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अभ्युदय के लिए संघ शक्ति का निर्माण ही एकमात्र विकल्प है। कार्यकर्ताओं की यशकामना इस मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। अतः उन्होंने यशपराङ्गमुखी तपस्वी संस्कृति साधकों का संघ खड़ा करने का जो निश्चय किया। किसी भी तरह के प्रत्यक्ष राजनीतिक समर्थन या विरोध से संघ को दूर रख कर विवादों से कवच प्रदान किया ।

तब इसी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने संस्था के रुप में तटस्थता दिखाते हुए , उसके स्वयंसेवको ने व्यक्तिगत रूप से न केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आंदोलन को ,अपितु अन्य क्रांतिकारी आंदोलनों को भी शक्ति प्रदान की थी । जिसके परिणाम स्वरूप 15 अगस्त 1947 को तो भारत राजनैतिक स्वशासन पा ही सका।
किंतु डॉक्टर साहब के विचार पर चलते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कार्यकर्ताओं के उत्सर्गों के चलते राजनीतिक स्वतंत्रता की हीरक जयंती के आते-आते भारत अपने देदीप्यमान तेज से संसार को चकित कर आलोकित करने की दिशा में अग्रसर है। यह स्पष्ट करता है कि डॉक्टर साहब के नेतृत्व में खड़े किए गए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उद्देश्य मात्र राजनीतिक सुशासन तक सीमित न होकर प्रत्येक भारतीय जन की आत्म-स्वतंत्रता और सुखद जीवन के लिए आवश्यक उपकरण हैI

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