Homeश्रद्धाजंलिध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे मामा जी

ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के चलते-फिरते विश्वविद्यालय थे मामा जी

शक्तिसिंह परमार

पत्रकारिता का उन्हें पितामह कहें या पत्रकारिता के ऋषि या फिर पत्रकारिता के चलते-फिरते विश्वविद्यालय..? उनके लिए प्रत्येक संबोधन सार्थक है…ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के पुरोधा और स्वदेश के पितृपुरुष स्व. श्री माणिकचंद्र वाजपेयी ‘मामाजी’ ने अपने व्यक्तित्व, कृतित्व से विचारों-कार्यों-आदर्शों और समृद्ध रचनाधर्म के द्वारा ‘पत्रकारिता धर्म’ की ध्वजा को निरंतर फहराए रखने की मिसाल प्रस्तुत की है… भारतवर्ष के लिए पत्रकारिता और पत्रकारिता धर्म गीता, रामायण के अध्याय के समान है…जिसका दायित्व समाज-राष्ट्र का समग्र निर्माण है…तभी तो देव ऋषि नारद को भारतीय विचारों में आद्य संवाददाता के रूप में मान्य किया गया है…यानी भारत में पत्रकारिता हजारों वर्ष प्राचीन है…आजादी प्राप्ति के पूर्व या उसके बाद पत्रकारिता के किसी भी कालखंड या दशक, दौर की बात की जाए..? विशुद्ध रूप से इसका लक्ष्य जनता को सिर्फ सूचना देना भर नहीं था…बल्कि समाज-राष्ट्र के विकास में योगदान के लिए शब्दों की ईंटों से राष्ट्र निर्माण की नींव को मजबूती देना ही प्रत्येक पत्रकार का लक्ष्य था…क्योंकि समाज के सर्वांगीण विकास में निष्पक्ष एवं निर्भीक पत्रकारिता का सर्वोच्च स्थान रहा…जिसको ‘मामाजी’ ने अपने पूरे जीवन में जीवंत करके दिखाया…इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी आजादी प्राप्ति के बाद या कहें 60-70 के दशक तक पर्याप्त रूप से वैचारिक एवं पेशेवर पत्रकारिता व पत्रकारों में देखने को भी मिला…लेकिन आपातकाल में अभिव्यक्ति के आजादी के झंडाबरदार समुदाय पत्रकारों एवं संचार माध्यमों पर जब इंदिरा सरकार ने बेडिय़ां डाली तो अनेकों ने अपनी निष्ठा बदल ली एवं मिशनरूपी पत्रकारिता से समझौता कर तानाशाही की जुबान में ही बोलना/लिखना उचित समझा…जबकि स्वदेश जैसे वैचारिक अधिष्ठान ने दो-दो बार की तालाबंदी के बाद भी अपना पत्रकारिता धर्म बिना डरे, झुके, डिगे निभाया…जो आज भी सतत जारी है…कारण साफ था कि इसकी नींव में ‘मामाजी’ जैसे विचार को समर्पित पत्रकार-संपादक ने ओजस्वी विचार कर्मों व कार्यों की आहुति दी…प्रख्यात आयुर्वेदाचार्य पं. रामनारायणजी शास्त्री एवं राष्ट्र आराधक स्व. सुदर्शनजी ने वटवृक्ष बन चुके स्वदेश को विचार की मिसाल मानकर समर्पित भाव से कार्य करने का खाद-पानी दिया…और जिसे ‘मामाजी’ से लेकर उनके प्रत्येक उत्तराधिकारियों ने निभाकर भी दिखाया…
‘मामाजी’ के लिए पत्रकारिता के संपूर्ण विश्वविद्यालय का संबोधन इसलिए सटीक बैठता है.., क्योंकि उन्होंने इस विधा में प्रत्येक क्षेत्र के चरमबिंदु तक पहुंचकर दायित्व निर्वाह करके दिखाया…उस समय पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन प्रमुख विभाग होते थे…पहला संपादकीय, दूसरा मशीनी अर्थात प्रिंटिंग और तीसरा प्रबंधन…मामाजी ने एक ही समय में अनेक बार इन तीनों विभागों का दायित्व पूर्ण निष्ठा के साथ संपादित किया…बात चाहे रिपोर्टिंग, समाचार संपादन, आलेख व संपादकीय लेखन की रही हो या फिर ट्रेडल मशीन पर छपाई की अथवा अखबार के बंडलों को मूल गंतव्य तक पहुंचाने की…’मामाजी’ को प्रत्येक काम की चिंता रहती थी और जरूरत पडऩे पर वे उसे पूरी दक्षता के साथ निष्पादित भी किया करते थे…इसलिए मामाजी के संपर्क में जो भी आया.., उसे उन्होंने प्रत्येक विधा में तराशा…आज उन्हीं के तराशे हुए अनेक पत्रकार, वरिष्ठ पत्रकार और संपादक देशभर में अपनी-अपनी विधा से राष्ट्रनिष्ठ विचारों की अमृत वर्षा संचार माध्यमों के द्वारा कर रहे हैं…
पत्रकारिता के लिए वर्तमान ‘पतझड़’ के समान स्थिति निर्मित कर रहा है… क्योंकि व्यावसायिक शर्तों के गडमड होने के चलते वैचारिक ही नहीं, समाचाररूपी पत्रकारिता में भी तेजी से विकृति आई है…तो टी.वी. पत्रकारिता ने सभी लक्ष्मण रेखाएं लांघ दी है..! ऐसी विकट स्थितियों में भी पत्रकारिता और विशेष रूप से वैचारिक पत्रकारिता के मापदंडों के आलोक में ‘मामाजीÓ हमें ‘पतझड़Ó में भी वसंत आने की प्रेरणा देकर उसी दिशा में उम्मीद के साथ आगे बढऩे का ध्येय पथ दिखा रहे हैं… क्या यह विचारणीय एवं आत्मसात करने वाली बात नहीं है कि मामाजी की अपनी बेबाक लेखनी के कारण तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उन्हें आपातकाल लगाते ही जेल में भेज दिया…शायद इसलिए उससे पहले भी सरकार ने उनके ‘विचारनिष्ठ समाचार-पत्र’ को विज्ञापन देने या सहयोग करने में दूसरे अखबारों की तुलना में बहुत अधिक कंजूसी बरती…लेकिन अभावों की जिंदगी के बावजूद अपने पत्रकारिता धर्म को ‘मामाजी’ ने हमेशा मंजिल तक पहुंचाया…अपने लेखन के कारण मामाजी कांग्रेस शासन में जेल गए.., लेकिन वे कांग्रेस विरोधी सरकारों के भी लाडले नहीं बन पाए…क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी भी दल या सरकार अथवा नेता के समक्ष राष्ट्र समर्पित ध्येय को तिलांजलि जो नहीं दी…फिर चाहे वह पक्ष का रहा हो या विपक्ष का…मामाजी की प्रामाणिक पत्रकारिता के तीन मूलमंत्र थे…जिन्हें उन्होंने अपने पूरे पत्रकारिता जीवन में निर्वाह करके दिखाया…उनका स्पष्ट मानना था कि -पहला : पत्रकारिता वह न लिखे व दिखाए, जो वह चाहता है..,क्योंकि इसमें चयनित दृष्टिकोण आड़े आता है…दूसरा : पत्रकारिता वह भी न लिखे-दिखाए, जो सिर्फ समाज को सुहाता है..,क्योंकि वह अच्छा-अच्छा गप्प का आदी हो जाता है…तीसरा : पत्रकारिता वह लिखे और दिखाए, जो समाज, राष्ट्रहित में आवश्यक है और राजनीतिक मूल्यों के संरक्षण को आगे बढ़ाता हो…बस मामाजी ने इन्हीं शर्तों पर अपना पत्रकारिता कर्तव्य निर्वाहित किया…पत्रकारिता एवं पत्रकारों की बिरादरी में तो ‘मामाजी’ जैसे समर्पित जीवन एवं ध्येयनिष्ठ पत्रकारों का आज तो नितांत रूप से रिक्त स्थान ही नजर आता है..,फिर भी ‘मामाजी’ की ध्येयनिष्ठता हमें ‘पतझड़’ में भी ‘वसंत’ आने की राह दिखा रही है…पुण्य स्मरण दिवस पर ‘मामाजी’ के श्रीचरणों में शत्-शत् नमन्…

लेखक स्वदेश इंदौर के संपादक हैं

 

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