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श्रीलंका की कंगाली, चिंता की सलवटें भारत के भाल पर…

शक्ति सिंह

यह महज संयोग है या फिर उस स्याह सच को बेनकाब करती स्थितियां..? जिस श्रीलंका को सोने की माना जाता था, वह आज आर्थिक कंगाली के दौर से गुजर रही है… सवाल इससे भी बड़ा यह है कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से वैश्विक खुशहाली की पहली रिपोर्ट 2012 में आई थी, तभी से दुनियाभर में आर्थिक विकास के साथ खुशहाली मापदंड को भी विकास का महत्वपूर्ण पैमाना मान लिया गया… 2021 में दुनिया के खुशहाल 149 देशों में भारत का स्थान 139वां रहा… अजब-गजब खुशहाली रिपोर्ट थी कि उसने भारत के पड़ोसी देशों के नागरिकों को हमसे ज्यादा खुशहाल जिंदगी गुजारते बताया… चीन को 84वां, नेपाल को 87वां, बांग्लादेश को 101वां, पाकिस्तान को 105वां और श्रीलंका को 129वां स्थान दिया गया था… यानी भारत से 10 पायदान खुशहाल श्रीलंकाइयों को बताया गया… आज एक साल बाद उसी श्रीलंका में दाने-दाने के लिए आम नागरिक मोहताज हो रहे हैं… भारत की दरियादिली देखिए कि वह चावल से लेकर डीजल तक श्रीलंका में पहुंचा रहा है… कहने का तात्पर्य यह है कि प्रायोजित और राष्ट्रीय मानकों के विपरीत विकासशील देशों को बदनाम करने की एक परिपाटी इस तरह की रिपोर्ट और सर्वे आएदिन करते रहते हैं…
किसी भी तरह के अर्थतंत्र की विफलता सिद्ध करती है कि उससे जुड़े प्रबंधन-नियंत्रण को देखने वाली नौकरशाही विफल है… क्योंकि जितने भी राज्यों में आज नि:शुल्क या रियायती दरों पर सभी तरह की मुफ्त बांटने वली लोक-लुभावन योजनाएं चल रही हैं, उनका राज्य के अथवा केंद्र के खजाने पर किस तरह से वित्तीय भार पहुंचेगा, वे जानते हैं… लेकिन सत्तासीन सरकार की वाहवाही करने या फिर सरकार के सुर में सुर मिलाकर अकर्मण्य करने वाली जब ऐसी खैराती योजनाओं का आंख मूंदकर समर्थन नौकरशाह और पूरा प्रशासन तंत्र करता है, तब इसे उधार का घी पीने की आदत के दुष्परिणाम के रूप में देखा जाता है… इसके चलते जरूरत के लिए काम करने के बजाय मांगने/देखने या कैसे भी फ्री में प्राप्त करने की जीवनशैली निर्मित होती है और सरकारों का लगातार घाटे का बजट एवं वित्तीय घाटा बढ़ता चला जाता है… गरीबी, बेरोजगारी की स्थिति में सुधार के बजाय विसंगतियां बढ़ती चली जाती हैं… इसलिए वित्तीय स्थितियों का संतुलन तो बेहतर प्रयास के साथ करना होता है, इसके लिए जरूरत होती है नौकरशाहों में दृढ़ इच्छाशक्ति की… श्रीलंका की ताजा आर्थिक कंगाली को लेकर चिंता की सलवटें भारत के भाल पर अगर गहरी होती दिख रही हैं, तो इसे सामान्य नहीं माना जाना चाहिए..! क्योंकि बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ घर बैठे नकद सहायता देने के लिए राज्य सरकारें जब ताल ठोंकने लगे तो हर तरह का आर्थिक प्रबंधन विफल होगा ही…
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 3 अप्रैल को देशभर के सभी विभागों के सचिवों के साथ चार घंटे मैराथन बैठक की… बैठक में जो सार निकलकर आया, वह यही था कि आआपा जैसे दल जिस तरह से दिल्ली से पंजाब तक मुफ्त खैराती, सबकुछ फ्री-फ्री का लॉलीपॉप मतदाताओं को पकड़ा रहे हैं, यह किसी भी श्रमशील राष्ट्र की छवि व चरित्र के विपरीत है… इस तरह की लोक-लुभावन योजनाएं आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं होती हैं… इसके कारण भारत आज श्रीलंका की आर्थिक कंगाली राह पर तेजी से धकेला जा रहा है… कहने का तात्पर्य यह है कि आज भारत में जितने भी राज्यों में इस तरह की मुफ्त बंदरबांट योजनाएं चल रही हैं, उस पर नौकरशाहों को चिंता दिखानी होगी… वरना श्रीलंका की भांति भारत में भी मुफ्त-मुफ्त पाने/दोनों की होड़ नया आर्थिक संकट खड़ा कर दे, तो आश्चर्य नहीं कीजिएगा..?
किसी भी राष्ट्र अथवा मजबूत अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए जरूरी नहीं है कि युद्ध ही मुख्य कारण बने… या फिर प्राकृतिक आपदाओं (बाढ़, भूकंप, अकाल) से हुए भयावह नुकसान के कारण आर्थिक हालात डांवाडोल हो जाए… यह मान लेना थोड़ी जल्दबाजी होगी, क्योंकि अनेक बार इनसे निपटने की तैयारी और तरीके हर किसी के पास होते हैं… अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रतिबंध भी अनेक बार किसी राष्ट्र की आर्थिक सेहत को प्रभावित करने में बेअसरकारी सिद्ध हुए है… लेकिन यह भी कड़वा सच और स्याह सत्य है कि सत्तासीन सरकारों और नेतृत्वकर्ता अर्थात राष्ट्र प्रमुखों के अदूरदर्शी नीति-निर्णय ही आर्थिक संकट का मुख्य कारक बन जाते हैं… फिर आर्थिक तंगहाली बढ़ती चली जाती है… महंगाई किस तरह से किसी के लिए आर्थिक आपातकाल बन जाए, इसके दुनिया में अनेक तरह के उदाहरण मौजूद हैं… श्रीलंका हो, पाकिस्तान हो, इनकी आर्थिक तंगहाली अथवा अर्थव्यवस्था बर्बादी के लिए नेतृत्व की अदूरदर्शिता ही मुख्य जिम्मेदार है… नेपाल में तो राजनीतिक अस्थिरता का दुष्चक्र रहा है… जिसके चलते आर्थिक आपातकाल ही नहीं लगा, बल्कि सामान्य जन को भूखा मरने की नौबत आ गई… आज श्रीलंका में भुखमरी, बेरोजगारी एवं महंगाई चरम पर है… श्रीलंका की इस ताजा आर्थिक कंगाली के कालखंड ने इन बातों को बहुत गंभीरता के साथ रेखांकित किया है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सत्ता के भीतर एक ही परिवार का जब लगातार दबदबा सड़ांध मारने लगता है, तब आर्थिक तबाही ही नहीं, नीतिगत रूप से निर्णय लेने की क्षमता भी खत्म होती चली जाती है… याद करें भारत में 90वें के दशक में आर्थिक उदारीकरण के दौर के पहले किस तरह से आर्थिक विशेषज्ञ के वित्त मंत्री रहते भारत को सोना गिरवी रखना पड़ा था… आज श्रीलंका में जो आर्थिक तंगहाली पसरी हुई है, राजनीतिक अस्थिरता का संकट भंवर बनकर पूरे देश को डुबो रहा है, वह पड़ोसी देशों को मुफ्तखोरी के इस चंगुल से निकलने की सीख देता है… क्योंकि श्रीलंका में महंगाई का दुष्चक्र ऐसा है कि सुनकर होश उड़ जाएंगे.., एक कप चाय के प्याले के लिए 100 रुपए, 500 रु. प्रति किलो चावल और 300 रुपए में शकर मिल रही है… 400 ग्राम दूध पावडर का पैकेट 800 में बिक रहा है, जो श्रमिक रोज 300 से 500 कमाता है, वह इस आर्थिक कंगाली में कैसे परिवार का पेट पाल रहा होगा..? बिजली, पानी से लेकर परिवहन तक बंद है… विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका है, श्रीलंका ने खर्चों में कटौती के लिए कई देशों में दूतावास बंद कर दिए, अंतरराष्ट्रीय मुद्रकोष से मदद लेने को लेकर रिजर्व बैंक और सरकार में भयावह मतभेद है… कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीलंका में जिस तरह से सरकार संचालन का एकाधिकार कायम करने और लोक-लुभावन नीति के तहत सरकारी खजाने से खैरात बांटने का अंधा खेल चला, उसी ने आज श्रीलंका को चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है…
श्रीलंका की दुर्दशा के लिए राजपक्षे परिवार और उनकी नीतियां जवाबदेह हैं… क्योंकि उनकी चीन से घनिष्ठता किसी से छिपी नहीं है… श्रीलंका चीन के महंगे कर्ज के जाल में उलझ चुका है… नेपाल, म्यांमार, पाकिस्तान भी उसी राह पर है… फिर जनता को अकर्मण्य बनाने वाली नीतियां और मुफ्त की योजनाएं कोढ़ में खाज का काम करती हैं… आज भारत के उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक प्रत्येक राज्य में सरकारें कुछ जरूरी, लेकिन कुछ गैर जरूरी रियायती योजनाएं चला रही हैं… लेकिन दिल्ली में आआपा ने बिजली, पानी का जो मुफ्त बांटो का खेल खेला, वह पंजाब में उसके गले की हड्डी बन रहा है, लेकिन अन्य राज्यों में भी क्षेत्रीय दल आआपा की भांति मुफ्त बांटो की राह पकड़ रहे हैं… इससे राज्यों का आर्थिक संकट तो गहराएगा ही, क्योंकि वे लगातार कर्ज के बोझतले दबते जा रहे हैं… महिलाओं की सुरक्षा, शिक्षा, विकास पर केंद्रित योजनाएं अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन व्यक्ति को काम ना करने देना और घर बैठाकर मुफ्त में खिलाना, नकद देना वास्तविकता में देश के अर्थ तंत्र को आघात पहुंचाकर श्रीलंका की भांति आर्थिक कंगाली को आमंत्रण देने जैसा है..!

लेखक इंदौर स्वदेश के स्थानीय संपादक हैं

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